न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
विनीत दीक्षित
नई दिल्ली। भारत और चीन के सैन्य कमांडरों के बीच हुई 11वें दौर की बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला है। पिछले हफ्ते हुई यह बातचीत लद्दाख के गोगरा और देपसांग इलाके में में सेनाओं की वापसी के बारे में थी, लेकिन बारह घंटे बाद भी यह ऐसे किसी मकाम पर नहीं पहुंच सकी कि कोई साझा बयान जारी किया जाता। भारत के नजरिए से आप कह सकते हैं कि बातचीत असफल रही।
इसके साथ ही, अब सुरक्षा जानकारों को लग रहा है कि पैंगोंग लेक वाले क्षेत्र में चीन के पीछे हटने की वजह यह थी कि वह भारतीय सेना को वहां से पीछे हटाना चाहता था जहां वह पहुंची हुई थी। उसके बाद अन्य स्थानों से सेनाएं पीछे हटाने में चीन की दिलचस्पी नहीं दिख रही। और अगर बाकी जगहों से सेनाओं के पीछे हटने की बात आगे नहीं बढ़ती है तो माना जा रहा है कि चीन उस सीमा रेखा का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा हासिल कर चुका है जिसका प्रस्ताव उसने छह दशक पहले सन् 1959 में किया था।
क्या सचमुच ऐसा है? सेनाओं की वापसी के मुद्दे पर चीन की ताजा बेरुखी के चलते यह सवाल अब सबके सामने है।
सैनिक सूत्र बताते हैं कि लद्दाख में 1962 के युद्ध के बाद चीन जिन-जिन इलाकों से वापस चला गया था, आज वह वहां फिर आकर बैठ गया है। पीएलए यानी पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने अपने दावे वाली सीमा रेखा के 85 से 90 प्रतिशत स्थानों पर मोर्चेबंदी कर दी है। इस सीमा रेखा का दावा चीन 1959 से ही करता रहा था।
दूसरे शब्दों में, चीन की फौज इन दिनों जहां-जहां भी भारत के अंदर आकर बैठी हुई है, फिलहाल उसका वहां से हटने का कोई इरादा नहीं दिख रहा। हो सकता है कि भविष्य में स्थिति बदले, भारत निश्चित रूप से इसका प्रयास भी करेगा, लेकिन इस समय की यह एक कड़वी सच्चाई है। सूत्रों के मुताबिक दसवें दौर की बातचीत के दौरान पीएलए की तरफ से साफ तौर पर कहा गया कि वह देपसांग के मैदान से या गोगरा से या कहीं और से पीछे हटने वाली नहीं है।
फिर चीन पैंगोंग लेक पर पीछे हटने को राजी क्यों हुआ? विशेषज्ञों के हिसाब से पंगोंग लेक के आसपास आमने-सामने वाली मोर्चाबंदी से पीछे हटने में पीएलए का नुकसान नाम मात्र का था क्योंकि सन् 1962 के बाद से पैंगोंग लेक के उत्तरी छोर के फिंगर आठ पर चीन अपनी 1959 के दावे वाली रेखा पर पहले से ही जमा बैठा था। अगर वह फिंगर चार से फिंगर आठ तक खिसक भी गया है तो खाली हुई ज़मीन कोई भारत के कब्जे में नहीं आ गई है। समझौते के तहत वह खाली ही रहेगी।
इस मामले में वास्तविक नुकसान भारत को हुआ माना जा रहा है।
रजांगला के खूनी मैदान के छोर पर स्थित कैलाश हाइट्स से नीचे उतरने का नुकसान। इन हाइट्स पर भारतीय फौज ने अगस्त 2020 में रातोंरात कब्जा कर लिया था। इससे भारतीय सेना ऐसी स्थिति में पहुंच गई थी कि वह चीन के मोल्दोवो पोस्ट वाले सैनिक जमावड़े का आँखों देखा हाल प्रसारित कर सकती थी। उस ऊंचाई से इस पोस्ट की तमाम हलचलें साफ देखी जा सकती थीं।
चीनी नजरिये से मोल्दोवो पोस्ट बेहद संवेदनशील सैनिक जमावड़ा है।
चीन को यह गवारा नहीं था कि भारत की फौज लद्दाख के पास उसके सबसे मजबूत ठिकाने पर चौबीसों घंटे नज़र रखे। इसीलिए वह कैलाश हाइट्स पर भारतीय तिरंगा नहीं चाहता था। सामरिक मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत के लिए मौजूदा स्थिति तब पैदा हुई जब चीन पैंगोंग लेक के फिंगर चार से पीछे हटने को इस शर्त पर तैयार हुआ कि बदले में भारत भी कैलाश हाइट्स से नीचे उतर आएगा।
दोनों सेनाओं की ताजा बातचीत ने चीन की मंशा उजागर कर दी है।
चीन ने इस बातचीत में साफ कर दिया कि जैसा पैंगोंग लेक पर हुआ वैसा टकराव की आशंका वाले अन्य स्थानों पर नहीं होने जा रहा। भारत के लिए यह एक झटके की तरह है, क्योंकि इसका अर्थ यह भी है कि काराकोरम पास के नजदीक भारत के अति संवदेनशील दौलतबेग ओल्डी हवाईअड्डे के रास्ते में चीन ने जो रुकावटें खड़ी कर रखी हैं उन्हें वह नहीं हटाएगा।
यह हवाईअड्डा देपसांग के मैदान में है और विशेषज्ञ मानते हैं कि पिछले साल की घटनाओं में चीनी सेना का सबसे गंभीर हस्तक्षेप देपसांग में ही हुआ है। यहां वह एक तरह से अपनी 1959 वाली प्रस्तावित सीमा रेखा पर आ चुका है।
उस समय चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने जवाहर लाल नेहरू को यह प्रस्ताव भेजा था कि भारत अगर अकसाई चिन पर से अपना कब्जा छोड़ने को तैयार हो जाए तो चीन अरुणाचल प्रदेश और अन्य स्थानों पर मौजूदा सीमा रेखा को मंजूरी दे सकता है।
सन् 1962 के युद्ध के बाद चीनी सेना 1959 वाली प्रस्तावित लाइन से पीछे चली गयी थी।
इससे जो मैदान खाली हो गया था उस पर दोनों तरफ की फौजें अपना हक़ जताती थीं। इस पर उनकी बातचीत भी चलती रहती थी।
पर पिछले साल की झड़प के बाद चीन की फौज उसी पुरानी 1959 की प्रस्तावित सीमा रेखा के 85 से 90 प्रतिशत स्थानों पर घुसपैठ कर चुका है। इस लिहाज से इस सीमा को लेकर आगे की बातचीत आसान नहीं रह गई।
– (यह लेख 16 अप्रैल 2021 को पहली बार ‘समय की चर्चा’ में प्रकाशित किया गया https://samaycharcha.com )
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