महेंद्र पाण्डेय
नई दिल्ली। कुछ दिन पहले जी-20 समूह को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हमारा देश जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को रोकने के लिए प्रतिबद्ध है और हमने जितना वादा किया था, उससे भी अधिक काम कर रहे हैं। दूसरी तरफ पर्यावरण और वन मंत्रालय हर प्रदूषणकारी और उत्सर्जन बढ़ाने वाली योजना को अनुमति दे रहा है, जंगलों को नुक्सान पहुंचाने वाले प्रोजेक्ट को रोक नहीं रहा और हिमालय क्षेत्र की बर्बादी पर आँखें मूंदे बैठा है। जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार कोयले के खनन के लिए सरकार नए क्षेत्रों में इजाजत दे रही है।
प्रधानमंत्री दुनिया के सामने कहते हैं कि भारत जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए प्रतिबद्ध है। दुनिया के लगभग हर देश की ऐसी ही स्थिति है। सभी देशों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है, पर हर देश दावा करता है कि वह इसे नियंत्रित करने को लेकर प्रतिबद्ध है।
संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड मेटेरियोलॉजिकल आर्गनाइजेशन के ग्रीनहाउस गैसों से सम्बंधित ताजा बुलेटिन के मुताबिक कोविड-19 के कारण दुनिया भर में तमाम गतिविधियां रुकने के बाद भी इस वर्ष ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई है। इस वर्ष सितम्बर के दौरान वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की औसत सांद्रता लगभग 411 पीपीएम रही, जबकि एक साल पहले सितम्बर 2019 में यह सांद्रता 408 पीपीएम थी। किसी भी एक वर्ष के दौरान यह इसकी सबसे बड़ी वृद्धि है और यह तब है जबकि इस साल दुनिया भर में लॉकडाउन के कारण उत्सर्जन में 4.2 से लेकर 7.4 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में इस बेतहाशा बढ़ोत्तरी के बीच वैज्ञानिकों का आकलन है कि यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकना है तो अगले दस वर्षों के भीतर इन गैसों के उत्सर्जन को आधा करना होगा।
पहली बार वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता 410 पीपीएम के पार वर्ष 2015 में पहुँची थी। इससे पहले ऐसी स्थिति 30 से 50 लाख वर्ष पहले आई थी। तब औसत तापमान 2 से 3 डिग्री अधिक था और सागर तल 10 से 20 मीटर ऊपर था। मगर, इस दौर में जो हो रहा है वह पहले से अधिक विनाशकारी होगा क्योंकि 30 से 50 लाख वर्ष पहले पृथ्वी पर लगभग आठ अरब लोग नहीं थे। औद्योगिक युग के पहले यानी सन् 1750 की तुलना में इस दौर में कार्बन डाइऑक्साइड की वायुमंडल में सांद्रता 50 प्रतिशत कम थी।
वर्ष 1750 की तुलना में मीथेन की सांद्रता वायुमंडल में लगभग ढाई गुना बढ़ चुकी है, और यह गैस कुल तापमान बढ़ोत्तरी में से 17 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है। नाइट्रस ऑक्साइड भी एक प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है और इसकी सांद्रता वायुमंडल में 23 प्रतिशत बढ़ चुकी है। जाहिर है कि सभी ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता वायुमंडल में निर्बाध गति से बढ़ती जा रही है। इसके परिणाम भी सामने आ रहे हैं।
अमेरिका की मेटेरियोलॉजी सोसाइटी के बुलेटिन में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार दुनिया में तापमान का जब से रिकॉर्ड रखा जा रहा है, उसके बाद से पिछला दशक (2010-2019) सबसे गर्म रहा है। नासा के अनुसार वर्ष 2019 इतिहास का दूसरा सबसे गर्म वर्ष और यूनाइटेड किंगडम के मौसम विभाग के अनुसार तीसरा सबसे गर्म वर्ष रहा। सन् 1980 के बाद से हर दशक अपने से पिछले दशक से अधिक गर्म रहा है। इनमें हर दशक पिछले दशक की तुलना में 0.07 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रहा था, पर पिछले दशक में यह वृद्धि 0.39 डिग्री रही। इसका मतलब यह है कि समय के साथ-साथ तापमान बढ़ने की दर भी बढ़ती जा रही है। इस शोधपत्र को दुनिया के 60 देशों के 520 वैज्ञानिकों ने तैयार किया है।
वर्ष 2014 से 2019 के बीच पृथ्वी का औसत तापमान हमारे इतिहास का सबसे गर्म दौर घोषित किया जा चुका है। इस दौरान अमेरिका, यूरोप और भारत में तापमान के सभी पिछले रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए। उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव पर सदियों से जमी बर्फ तेजी से पिघलती रही, बड़ी बाढ़ों और चक्रवातों की घटनाएँ बढ़ गयीं और प्रजातियों के विलुप्तीकरण की दर किसी भी पिछले दौर से अधिक हो गई। इस दौर में जंगलों और झाड़ियों में आग लगाने की दर ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, ग्रीस और फिलीपींस में अत्यधिक रही।
वर्ष 2019 तक पृथ्वी का औसत तापमान औद्योगिक काल से पहले के वर्षों की तुलना में 1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है। पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के जलवायु विशेषज्ञ माइकल मान के अनुसार यदि तापमान में बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है तो दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को आधे से भी कम करना पड़ेगा। लेकिन इस सम्भावना नजर नहीं आती।
जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के सारे प्रभाव हमारे सामने हैं। महासागरों का तापमान भी बढ़ रहा है। वर्ष 2019 में यह तापमान 2016 के बाद सबसे अधिक रहा। पिछले 30 वर्षों के दौरान सागर तल में औसतन 8.64 सेंटीमीटर की बढ़ोत्तरी हो गई है। वर्ष 2019 में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पिछले आठ लाख वर्षों में सर्वाधिक रहा है। यह आकलन दोनों ध्रुवों पर जमी बर्फ के बीच उपलब्ध हवा के विश्लेषण से किया गया है।
पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है, और ऐसी ही स्थितियां बनी रहीं तब वर्ष 2050 तक तापमान में बढ़ोत्तरी 1.7 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाएगी और पेरिस समझौते के तहत जिस 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी का लक्ष्य रखा गया था, वह कहीं से पूरा नहीं होगा। इस बीच वैज्ञानिकों का मानना है कि ला नीना के प्रभाव के बाद भी, मौजूदा वर्ष सबसे गर्म वर्ष रहने की आशंका है। (आभार – समय की चर्चा)
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