न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
महेंद्र पाण्डेय
अमेरिका में एक गाने ने सैकड़ों लोगों को आत्महत्या करने से बचा लिया। यह अमेरिका के एक मशहूर रैप गायक और गीतकार लॉजिक का गाया गाना है। तीन साल पहले 2017 में यह गाना रिलीज हुआ था, जिसका शीर्षक 1-800-273-2255 था। यह कोई बेतुका नंबर नहीं है, बल्कि यह अमेरिका में आत्महत्या निवारण के लिए जारी किया गया हेल्पलाइन नम्बर है।
लॉजिक ने यह गाना 28 अप्रैल 2017 को रिलीज़ किया था, और इसके दो महीने के भीतर ही गूगल पर हेल्पलाइन की जानकारी लेने वालों की संख्या 10 प्रतिशत तक बढ़ गयी थी। इसी अवधि के दौरान अमेरिका में हेल्पलाइन पर फोन करने वालों की संख्या सात प्रतिशत बढ़ गयी, और आत्महत्या की दर में छह प्रतिशत की कमी आ गयी। यानी, इससे आत्महत्या रोकने से सम्बंधित हेल्पलाइन पर मदद माँगने वालों की संख्या ही नहीं बढ़ी, बल्कि इसकी वजह से बहुत से लोगों ने आत्महत्या का विचार त्याग दिया। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में इस मामले में बाकायदा एक शोधपत्र प्रकाशित हुआ है।
लॉजिक का पहला म्यूजिक एल्बम 2014 में आया गया था, और अब तक उनके सात एल्बम आ चुके हैं। वे काफी लोकप्रिय गायक हैं और दो बार ग्रैमी पुरस्कारों के लिए नामित किये गए हैं। उनके गाने रिलीज़ होने के बाद कई हफ्ते तक म्यूजिक चार्ट में शीर्ष दस गानों में शामिल रहते हैं। जुलाई 2020 में पारिवारिक कारणों से वे संगीत से दूर चले गए थे, पर इस साल फिर उनकी वापसी हो गयी है। उन्होंने अपने चर्चित गाने, 1-800-273-2255 को एमटीवी पर 27 अगस्त 2017 को और ग्रैमी पुरस्कार समारोह में 28 जनवरी 2018 को गाया था। लॉजिक से जब इस गाने के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब था– ‘इससे पहले बहुत सारे लोग मुझसे कहते थे कि तुमने अपने गाने से मेरी जान बचा ली, तब मुझे एहसास हुआ कि क्यों न श्रोताओं के लिए सचमुच एक जान बचाने वाला गाना तैयार करूँ, और यह उसी के दिशा में एक प्रयास था।‘
संगीत केवल लोगों की जिंदगियां नहीं बचा रहा, बल्कि संगीत उद्योग अब जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को कम करने के लिए भी प्रतिबद्ध है। दुनिया की तीन सबसे बड़ी संगीत कम्पनियां सोनी म्यूजिक एंटरटेनमेंट, यूनिवर्सल म्यूजिक ग्रुप और वार्नर म्यूजिक ग्रुप ने अन्य कई संगीत कंपनियों के साथ एक म्यूजिक क्लाइमेट समझौता किया है जिसकी पूरे विश्व में सराहना की जा रही है। इसमें शामिल म्यूजिक कम्पनियां वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को आधा और वर्ष 2050 तक शून्य करने को प्रतिबद्ध हैं।
म्यूजिक कम्पनियां दूसरी सम्बंधित कंपनियों पर भी कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए दबाव बना रही हैं। स्पॉटीफाई जैसी म्यूजिक स्ट्रीमिंग कंपनियों पर भी यह दबाव बढ़ रहा है। बड़े म्यूजिक बैंड जो पूरी दुनिया का दौरा करते हैं, उनके आयोजनों में भी कार्बन उत्सर्जन में कटौती के प्रयासों पर बात की जा रही। अनेक कलाकार इसके लिए काम करने को तैयार हो गए हैं।
एक तरह से संगीत में इस समय पर्यावरण को बचाने की मुहिम चल रही है। वैसे भी, संगीत का जन्म प्रकृति की आवाजों से हुआ है। जो संगीत उद्योग पर्यावरण से पूरी तरह से दूर हो चुका था, अब वह प्रकृति की आवाजों पर वापस ध्यान देने लगा है। पिछले तीन वर्षों से उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर तेजी से पिघलते ग्लेशियर से टकराने वाली हवा की आवाजों, ग्लेशियर के टूटने और चटखने की आवाजों और इनसे गिरती पानी की बूंदों की आवाजों का इस्तेमाल करके अनेक म्यूजिक विडियो तैयार किये गए हैं जो बहुत पसंद भी किये गए।
ऑस्ट्रेलिया में एक नए म्यूजिक एल्बम में 53 ऐसे पक्षियों का कलरव है, जो विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। यह एल्बम इसी महीने लॉन्च किया गया है और पॉपुलैरिटी चार्ट में पांचवें स्थान पर पहुँच गया है। ऐबा और मारिया कैरी जैसे विश्विख्यात बैंड और गायक भी इस चार्ट में पक्षियों की आवाजों से पीछे हैं। ऑस्ट्रेलिया के पक्षियों पर कई दशकों से अध्ययन कर रही संस्था बोवेरबर्ड ने डेविड स्टीवर्ट के साथ मिल कर इस अल्बम को तैयार किया है। उन्हें इसे तैयार करने में चार दशक लगे। यह समय असल में पक्षियों की आवाजों को रिकॉर्ड करने में लगा।
इस म्यूजिक एल्बम का नाम है, सॉन्ग्स ऑफ़ डिसएप्पियरेंस। इसके पहले ट्रैक में वायलिन वादक सिमोन स्लैटरी की धुनों के साथ सभी 53 पक्षियों की आवाज का कोलाज़ है, और बाकी ट्रैक में पक्षियों की अलग-अलग आवाजें हैं। ‘बर्डलाइफ ऑस्ट्रेलिया’ नामक संस्था ने कुछ महीने पहले ही एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसके अनुसार ऑस्ट्रेलिया के लगभग 17 प्रतिशत पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ रही हैं। इस एल्बम में कुछ ऐसे भी पक्षियों की आवाजें हैं, जो पिछले चार दशकों के भीतर ही विलुप्त भी हो गए हैं। इस एल्बम से होने वाली आमदनी ‘बर्डलाइफ ऑस्ट्रेलिया’ को दी जायेगी।
पक्षियों की आवाजों के महत्व पर भी अनेक अध्ययन किये गए हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर और ब्रिटिश ट्रस्ट फॉर ऑर्निथोलॉजी के साझा तौर पर किये गए एक अध्ययन के अनुसार शहरी क्षेत्रों में, विशेष कर गरीब इलाकों में, मधुर आवाज वाले पक्षी कम होते हैं और परेशान करने वाले पक्षी अधिक। यह अध्ययन जर्नल ऑफ़ एप्लाइड इकोलॉजी के नए अंक में प्रकाशित किया गया है। अध्ययन के अनुसार, शहरों में प्रति व्यक्ति पक्षियों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा कम होती है। हरे भरे स्थानों पर पक्षियों की संख्या शहरों की अपेक्षा 3.5 गुना अधिक होती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जब आपके सामने तरह तरह की चिड़ियां होती हैं या आप उनका कलरव सुनते हैं, तब आपका तनाव, उदासी और अवसाद ख़त्म हो जाता है। डॉ डेनियल कॉक्स, जो यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर में वैज्ञानिक हैं, कहते हैं कि यदि मीठा बोलने वाली चिड़ियों की संख्या प्रति व्यक्ति 1.1 से अधिक होती है तो लोग तनाव कम महसूस करते हैं। वैसे भी प्राकृतिक आवास में वन्य जीव तो हम देख नहीं पाते, इसलिए पक्षियों को देख कर उसका अहसास जरूर होता है।
मानव जीवन में संगीत और गायन हर काल और हर संस्कृति में रहा है। फिर भी संगीत कभी एक जैसा नहीं रहा और ना ही हर उद्देश्य के लिए संगीत का एक स्वरुप रहा है। थिरकने, बच्चों को शांत कराने या फिर प्यार का इजहार करने जैसे अलहदा उद्देश्यों के लिए संगीत और गीत भी बदल जाते हैं। ऐसा हर संस्कृति और हर समुदाय में है और हर काल में होता आया है। जनजातियों या फिर दुनिया भर के ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां संगीत का स्वाभाविक विकास होता रहा है और जो अभी तक तकनीक और प्रोद्योगिकी से अछूते हैं, लोकगीतों के माध्यम से उनके विकास को समझा जा सकता है, उनके आपसी सम्बन्ध को समझा जा सकता है और फिर उनसे प्रकृति के सम्बन्ध को भी समझा जा सकता है। जर्नल ऑफ़ एथनोबायलॉजी तो इस विषय पर एक पूरा संस्करण प्रकाशित कर चुका है। इसके सम्पादन का जिम्मा यूनिवर्सिटी ऑफ़ हेलसिंकी के डॉ अल्वेरो फर्नांडीज लामज़रेस ने उठाया था।
उनके मुताबिक लोकगीत जनजातियों की भावनाओं को प्रकट करने का मुख्यतम माध्यम रहा है। यह माध्यम इतना सशक्त रहा है कि इससे ही दूसरी जनजातियों से संवाद स्थापित किया जा सकता था। यहाँ तक कि कई बार पशुओं और वृक्षों से भी लोकगीतों के माध्यम से संवाद किया जाता था। यह सब संवाद या ज्ञान मानव इतिहास की एक दुर्लभ धरोहर हैं। डॉ अल्वेरो फर्नांडीज लामज़रेस के अनुसार इन्हें सहेज कर रखना बेहद ज़रूरी है।
संगीत और लोकगीतों का असर क्या किसी संस्कृति या समुदाय तक ही सीमित रहता है, या फिर यह सार्वभौमिक है? इस प्रश्न का उत्तर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सैमुएल मैहर और मानवीर सिंह ने खोजने का प्रयास किया है। करंट बायलॉजी नामक जर्नल के 2018 के जनवरी अंक में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक लोकगीतों का प्रभाव सार्वभौमिक है और भाषाओं से परे है। जाहिर है कि संगीत हमारे जीवन और समाज का अभिन्न अंग है, पर तथाकथित विकास ने इसका दायरा संकुचित कर दिया है। अंधे विकास के साथ ही संगीत गौण हो गया है, और अब तो शोर में तब्दील हो चुका है।
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