विनीत दीक्षित
नई दिल्ली। लद्दाख में गलवान वैली की घटना के बाद से चीन लगातार जैसा रुख अपनाए हुए है उससे लगभग स्पष्ट है कि पीपल्स लिबरेशन आर्मी एलएसी के इधर जहां तक घुस आई है, अब वह वहाँ से खुद हटने वाली नहीं है। जानकारों का मानना है कि 1962 के युद्ध के बाद चीन की तरफ से भारतीय हिस्से पर यह सबसे बड़ा कब्जा है।
पिछले हफ्ते दिल्ली में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर जो बातचीत हुई उसका भी कोई नतीजा नहीं निकला। इस मसले पर दोनों देशों के बीच यह अठारहवें दौर की बातचीत थी। इस बातचीत के बाद लगता है कि चीनी सरकार ने अपने सैनिक कमांडरों को इशारा कर दिया है कि जहां हो वहीं रहो।
शायद इसीलिए भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत को कहना पड़ा कि हालांकि शांतिपूर्ण समाधान तलाशने की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन चीन के साथ बातचीत से विवाद नहीं सुलझा तो हमारे सामने सैनिक कार्रवाई का विकल्प भी खुला है। उन्होंने कहा कि सेना से लद्दाख में एलएसी के आसपास अतिक्रमण की कोशिशों पर नजर रखने के लिए कहा गया है।
कुछ महीने पहले तक लद्दाख में ऐसी कोई समस्या नहीं थी। अगर दोनों तरफ की सेनाएं आमने-सामने आ भी जाती थीं, तो बातचीत के बाद वापस चली जाती थीं। सर्दियों में तो कभी भी सामने नहीं रहती थीं। लेकिन इस बार, सियाचिन को छोड़ दें तो, शायद पहली बार भारत और चीन की फ़ौजें सर्दी के महीनों में भी लद्दाख में आमने-सामने जमी रहने वाली हैं। वह भी बख्तरबंद तरीके से। भारतीय फौज बड़े पैमाने पर सर्दी की जरूरत का समान जुटा रही है।
चीन से लगने वाली पूरी सीमा यानी पूरी एलएसी की लंबाई 3488 किमी है। इस पूरी सीमा पर कम से कम सत्रह स्थानों पर चीनी फौज ने जो घुसपैठ की है उसे सामान्य मान कर टाला नहीं जा सकता। लद्दाख में तो उसने नई छावनियां बना ली हैं और पैंगोंग, देपसांग, गलवान और गोगरा में उसने मीडियम रेंज के रॉकेट लॉन्चर तैनात कर दिए हैं।
इनके अलावा दक्षिण लद्दाख के चूमर इलाके में भी पिछले कुछ बरसों में पीएलए और भारतीय सेना के बीच कई बार झड़प हो चुकी है। कई बार यह झड़प दो-दो हफ्ते तक चली। ये झड़पें भारत की ओर से डीबीओ यानी दौलत बेग ओल्डी हाइवे के रास्ते पर पड़ने वाली श्योक नदी पर पक्का पुल बनाए जाने के बाद से बढ़ गई हैं। असल में डीबीओ की हवाई पट्टी काराकोरम पास और सियाचिन के नजदीक है। इस नई सड़क और पुल के बनने से इस हवाई पट्टी तक पहुंचने का रास्ता सिमट कर कुछ घंटों का रह गया है। पहले इस तक पहुंचने में कम से कम दो दिन लग जाते थे। बस यही है झगड़े की जड़।
लद्दाख से नीचे उतरें तो हिमाचल प्रदेश में पीएलए की घुसपैठ शिपकीला और कौरिक इलाके में दर्ज की गई है। सब सैक्टर कौरिक बेहद संवेदनशील इलाका है जिसे चीन अपना मानता है। यहां की दुर्गम और पथरीली पहाड़ियों पर दोनों तरफ सैनिक खासी संख्या में तैनात हैं। शिपकीला पास उन तीन स्थानों में से एक है जहां से भारत और चीन के बीच सड़क के रास्ते व्यापार होता है। वह भी साल के कुछ तयशुदा दिनों में। यह व्यापार दोनों देशों के बीच एक समझौते के तहत है। मई से सितंबर के बीच हमारी तरफ के कई चरवाहे सीमा के पार चले जाया करते थे और चीन इन मासूम चरवाहों की ओट में अपनी खटपट जारी रखता था। फिलहाल शिपकीला में भारत की पकड़ मजबूत है क्योंकि यहां भारतीय सैनिक चीनी फौज के मुक़ाबले ज्यादा ऊंचाई पर तैनात हैं।
चीन या तिब्बत से लगने वाली सीमा का सबसे ज्यादा सरदर्दी वाला इलाका उत्तराखंड में है। बाराहूति का मैदान नेलोंग वैली में आता है। यह मैदान छह-सात किमी लंबा और चार-पांच किमी चौड़ा है। पीएलए यहां भारत की तरफ आकर कई बार अपने हेलिकॉप्टर उतार चुकी है। चीन इस इलाके को भी अपना मानता है और आए दिन गड़बड़ करता रहता है। उत्तराखंड में ही कैलाश मानसरोवर जाने वाले रास्ते पर नेपाल को छूता हुआ लीपुलेख पास है। चार महीने पहले भारत ने लीपुलेख पास तक सड़क बना ली। तब से चीन और नेपाल ने लीपुलेख पास का रास्ता लगभग बंद कर दिया है। इससे कैलाश मानसरोवर का रास्ता भी रुक गया, यह अलग बात है कि कोरोना के चलते कैलाश मानसरोवर यात्रा इस साल नहीं हो रही।
उत्तराखंड में एक और स्थान है नीति पास जहां पीएलए के साथ भारतीय सैनिकों का टकराव अक्सर होता रहता है। इस इलाके को चीन अपने नक्शे में दिखाता है। जब भी एलएसी को लेकर बातचीत होती है, हर बार चीन की तरफ से कहा जाता है कि नीति पास के आसपास का इलाका चीन का हिस्सा है।
इसके बाद चीनी सीमा भारत को उत्तर-पूर्व में छूती है और वहां भी चीन की घुसपैठ के उदाहरण कम नहीं हैं। सिक्किम में नथुला पास और नकुला पास ऐसे ही उदाहरणों वाले क्षेत्र हैं। फिर चुम्बी वैली का इलाका है जहां भूटान के दोकलाम में चीन की फौज से हमारा टकराव हो चुका है। एक समझौते के तहत भूटान की सीमाओं की रक्षा भारत की ज़िम्मेदारी है।
नथुला पास पर 1967 में भारत और चीन के बीच एक छोटा, मगर घमासान युद्ध हुआ था, मगर अब वहां दोनों देशों के बीच सड़क मार्ग से व्यापार का एक और केन्द्र बन गया है। नथुला पास सिक्किम की पूर्वी सरहद पर है जबकि सिक्किम के ठीक दूसरे छोर पर नकुला पास है। यह बिलकुल बंजर इलाका है, लद्दाख जैसा। यहां भी पीएलए की दखलंदाजी कायम है, पर वह भारतीय सैनिकों की सजगता के चलते ज्यादा कुछ कर नहीं पाया।
जैसा कि सब जानते हैं, अरुणाचल को अपना हिस्सा बताने से चीन कभी नहीं चूकता। वहां वह अक्सर तवांग के खिंजेमने पर अपना हक़ जताता रहता है। यह वही इलाका है जहां होकर दलाई लामा 1959 में भारत आए थे। 1962 में चीन ने युद्ध की शुरुआत इसी खिंजेमने पोस्ट पर हमले से की थी। उसके बाद भी पीएलए उन स्थानों को अपना निशाना बनाती रहती है जिनसे होकर दलाई लामा भारत आए थे।
तवांग सैक्टर में बूमला नाम की एक और जगह है जहां समस्या है। मगर अरुणाचल प्रदेश में चीन के साथ सबसे ज्यादा तनाव लय पास और फिश टेल वाले इलाके में है। लय पास अरुणाचल के अपर सुबनसरी जिले में पड़ता है जबकि जिसे फिश टेल कहते हैं वह इलाका किभूतू वैलौंग घाटी के पास है। फिश टेल असल में भारत का धुर पूर्वी सिरा है। 1962 की लड़ाई में अगर कहीं चीन की पराजय हुई थी तो वह वैलौंग घाटी में हुई थी। शायद उसे अभी तक चीन भुला नहीं पाया है और यहां लगातार तनाव बनाए रखता है। यहां एलएसी पर दोनों तरफ लगातार सेनाएं जमी रहती हैं, जैसा कि इन दिनों लद्दाख में हो रहा है .(First published in Samay Ki Charcha)
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