न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
महेंद्र पाण्डेय
इस साल के पहले सात महीनों में ही देश ने दो चक्रवात, एक जानलेवा हिमस्खलन, चरम गर्मी, भयानक बाढ़, भूस्खलन की कई घटनाएं और बादल फटने व बिजली गिरने से अनेक मौतें देख ली हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक बरसों से चेतावनी दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के प्रभाव से चरम प्राकृतिक आपदाएं हर साल बढ़ रही हैं और भारत ऐसे देशों में शीर्ष पर है जहां इनका सबसे ज्यादा असर होगा। लेकिन इसे नियंत्रित करने के उपायों में हम नितांत फिसड्डी हैं।
हमारी तुलना में इस मामले में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के कई छोटे देश कहीं अच्छा काम कर रहे हैं। हमारी सरकार जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के नाम पर अमेरिका, यूरोपीय देशों और चीन को जिम्मेदार ठहराती रही है और सौर ऊर्जा की कथित उपलब्धियों का डंका पीटती रही है। साथ ही कोयले के इस्तेमाल को लगातार बढ़ावा दे रही है।
देश इस समय भयानक बाढ़, बादल फटने, चट्टानों के दरकने और भूस्खलन की चपेट में है। आकाशीय बिजली गिरने से 80 से अधिक लोगों के साथ ही असम में लगभग 20 हाथियों की मौत हो चुकी है। पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहां बिजली गिरने की घटनाओं में 35 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
जून के अंत से जुलाई के पहले सप्ताह तक पूरा उत्तर भारत और मध्य भारत अत्यधिक गर्मी से घिरा था और तापमान के नए रिकॉर्ड बन रहे थे। दिल्ली में पिछले नौ वर्षों का रिकॉर्ड ध्वस्त हो गया और अनेक जगह तापमान औसत तापमान से 7 डिग्री सेल्सियस से अधिक ऊपर पहुँच गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2010 के बाद से देश में अत्यधिक गर्मी के कारण 6500 से ज्यादा लोगों की असामयिक मृत्यु हो चुकी है। इसमें से अकेले 2015 में 2500 से अधिक लोगों की मृत्यु दर्ज की गयी।
दिल्ली समेत उत्तर भारत में अत्यधिक गर्मी का कारण मानसून का देरी से पहुँचना बताया गया। इस साल दिल्ली में मानसून की देरी 2006 के बाद सबसे अधिक थी। पिछले 50 वर्षों (1971 से 2019 तक) में प्राकृतिक आपदाओं के कारण देश में कुल 141308 मौतें दर्ज की गयी हैं जिसकी 12 प्रतिशत यानी 17362 मौतें अत्यधिक गर्मी के कारण हुईं। जनवरी 2020 में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने लोकसभा को बताया था कि हर साल गर्मी की तीव्रता बढ़ रही है और इससे प्रभावित होने वाली जनसंख्या भी बढ़ रही है। डॉ हर्षवर्धन ने इसका बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को बताया था।
इससे पहले मई के महीने में देश के पश्चिमी सागर तट पर तौकते और पूर्वी क्षेत्र में यास चक्रवात ने अपना रौद्र रूप दिखाया। दोनों चक्रवातों की तीव्रता मौसम वैज्ञानिकों के अनुमान से अधिक थी। तौकते के कारण लगभग 155 व्यक्तियों की मृत्यु हुई और इसे पिछले कुछ दशकों का सबसे तीव्र चक्रवात कहा गया।
इससे बचाव की तैयारियों का आलम यह था कि उस दौरान मुंबई के सागर तट पर ओएनजीसी के तेल के कुएं में काम कर रहे श्रमिक एक जहाज पर फंसे रहे। पश्चिम बंगाल और ओडीशा में तबाही मचाने वाले यास चक्रवात के कारण लगभग 15 लाख लोगों को अपने घर से दूर जाना पड़ा और 10 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी।
साल के शुरू में, 7 फरवरी को सुबह दस बजे के आसपास उत्तराखंड के चमोली जिले में ऋषिगंगा नदी में अचानक चट्टानों और पानी का सैलाब आया, दो पनबिजली परियोजनाएं ध्वस्त हो गईं और इनमें काम करने वाले 200 से अधिक मजदूर लापता हो गए, या सुरंगों में फंस गए।
वैज्ञानिकों के अनुसार लगभग सूर्योदय के समय समुद्र तल से लगभग 5600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हिमालय की रोंती चोटी के पास से ग्लेशियर और चट्टानों का बहुत बड़ा हिस्सा टूट कर लगभग 3.7 किमी नीचे गिरा, जिससे ऋषिगंगा में चट्टानों और पानी का सैलाब आ गया। गिरने वाली चट्टानों और ग्लेशियर के हिस्से का आयतन लगभग 2.7 करोड़ घनमीटर और वजन लगभग छह करोड़ टन था। टूट कर गिरे ग्लेशियर की लम्बाई फुटबॉल के पंद्रह मैदानों और चौडाई फुटबॉल के पांच मैदानों से ज्यादा थी।
इस सबके बाद भी सरकारी स्तर पर इस समस्या से निपटने की प्रतिबद्धता नजर नहीं आती। यूनाइटेड नेशंस क्लाइमेट में 31 जुलाई 2021 तक सभी देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए अपने लक्ष्य जमा करने थे।
110 देशों ने इसे समय सीमा के भीतर जमा भी किया, पर इनमें भारत, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, सीरिया और चीन समेत 82 देश शामिल नहीं हैं। जुलाई की 22 से 24 तारीख तक कान्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज के 26वें अधिवेशन से सम्बंधित सचिवालय ने जलवायु परिवर्तन को लेकर पेरिस समझौते के अनुपालन के मामले में एक महत्वपूर्ण बैठक बुलाई।
इसमें भारत को भी बुलाया गया था, पर भारत ने इसमें शिरकत नहीं की। कारण बताया गया कि संसद का अधिवेशन चल रहा है। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को रोकने के लिए भारत की प्रतिबद्धता इसलिए आवश्यक है क्योंकि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में हमारा स्थान दुनिया में तीसरा है। चीन और अमेरिका के बाद।
बीसवीं सदी के आरम्भ से वर्ष 2018 के बीच देश का औसत तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है, और सरकारी अनुमानों के अनुसार वर्ष 2100 तक यह वृद्धि 4.4 डिग्री सेल्सियस तक पंहुच जायेगी। क्या हमारा देश और सरकार इसके लिए तैयार है? (आभार – समय की चर्चा )
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