न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क

सुशील कुमार सिंह

संसद में पेश हुए एक बिल से दिल्ली सरकार और केंद्र के बीच अधिकारों का विवाद फिर शुरू हो गया है जो जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले से शांत हुआ था। पीठ ने कहा था कि दिल्ली सरकार को अपने हर फैसले की फाइल उपराज्यपाल के पास भेजना जरूरी नहीं है और उपराज्यपाल को रोजमर्रा के मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। लेकिन इस सोमवार लोकसभा में पेश किया गया राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) बिल, 2021 इस स्थिति को उलटने वाला है।

यह बिल गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने रखा। आम आदमी पार्टी इसके खिलाफ सड़क पर उतर आई है। ज्यादातर विपक्षी दल भी इसका विरोध कर रहे हैं। कांग्रेस भी, जिसने केंद्र के साथ तनातनी में शायद ही कभी अरविंद केजरीवाल सरकार का साथ दिया था। आम आदमी पार्टी के दिल्ली की सत्ता में आने के बाद लंबे समय तक यह तनातनी चली। आखिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और शक्तियों के बंटवारे के मसले पर संविधान पीठ का गठन हुआ जिसने 4 जुलाई 2018 को अपना फैसला सुनाया। अरविंद केजरीवाल सरकार का दावा है कि संविधान पीठ के फैसले के बाद ही मोहल्ला क्लीनिक, दो सौ यूनिट तक बिजली मुफ्त, डीटीसी बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा की सुविधा, सीसीटीवी कैमरे और राशन की डोर स्टेप डिलीवरी जैसे निर्णय साकार हो सके।

इस बुधवार अपनी पार्टी के हजारों कार्यकर्ताओं के साथ प्रदर्शन करते हुए जंतर-मंतर पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि इस बिल के हिसाब से अब दिल्ली सरकार का मतलब होगा उपराज्यपाल। फिर मुख्यमंत्री और उस सरकार का क्या होगा जिसे जनता ने वोट देकर चुना है? यह जनता के साथ धोखा है। उन्होंने कहा कि बिल में लिखा है कि अब सारी फाइलें एलजी के पास जाएंगी जबकि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि चुनी हुई सरकार के पास शक्ति होनी चाहिए। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा की केंद्र सरकार पिछले दरवाजे से दिल्ली की सरकार भी चलाना चाहती है। वह इस कानून के जरिये दिल्ली में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी जैसे अच्छे कामों को रोकना चाहती है। मुख्यमंत्री ने केंद्र से अपील की कि वह मनमानी नहीं करे और इस कानून को वापस ले। उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का कहना था कि यह कानून केवल दिल्ली सरकार की ताकत को रोकने के लिए नहीं बल्कि केजरीवाल मॉडल ऑफ गवर्नेंस को उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात व उत्तराखंड में रोकने की कोशिश भी है।

आप सूत्रों का कहना है कि उपराज्यपाल की शक्तियां बढ़ाने का प्रस्ताव अगर संसद से पास होकर कानून बन जाता है तो पार्टी इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी। तब तक जनसभाओं के जरिए इस मुद्दे को उठाया जाएगा। दिल्ली के साथ उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड आदि राज्यों में भी इस मुद्दे पर जनसभाएं की जाएंगी।

बहरहाल, बिल में कहा गया है कि विधानसभा से पारित किसी भी विधेयक के लिए उपराज्यपाल की मंजूरी आवश्यक होगी। दिल्ली सरकार को कोई भी निर्णय लेने से पहले उपराज्यपाल से मशविरा लेना होगा। दिल्ली सरकार खुद कोई कानून नहीं बना सकेगी। जबकि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 4 जुलाई 2018 के अपने फैसले में कहा था कि सरकार के रोजमर्रा के कामकाज में उपराज्यपाल दखल नहीं देंगे। पीठ का कहना था कि उपराज्यपाल सरकार की सहायता कर सकते हैं और मंत्रि परिषद को सलाह दे सकते हैं। उसके मुताबिक कानून-व्यवस्था, पुलिस और जमीन के विषय छोड़ कर बाकी सभी अधिकार दिल्ली सरकार के हैं और उसे अपने फैसले की सारी फाइलें उपराज्यपाल को भेजने की आवश्यकता नहीं है। यानी सारे फैसले चुनी हुई सरकार करेगी और इसकी सूचना के लिए उपराज्यपाल को संबंधित फाइल भेजी जाएगी।

कांग्रेस सहित ज्यादातर विपक्षी दलों ने नए बिल का विरोध किया है। मगर नई दिल्ली सीट से लोकसभ पहुंचीं मीनाक्षी लेखी ने कहा कि विरोध का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि किसी भी सरकार को संविधान और कानूनों के नियम से काम करना है। उन्होंने कहा कि दिल्ली की जनता ने आपको चुन कर भेजा है तो हमें भी चुन कर भेजा है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष आदेश गुप्ता का कहना था कि अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया संविधान के आधार पर सरकार चलाने के लिए तैयार नहीं हैं।