न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
सुशील कुमार सिंह

हमारे लोकतंत्र के बारे में कुछ विदेशी संस्थाओं ने हाल में जो टिप्पणियां की हैं या जो रेटिंग दी है, उसे लेकर सरकार खासी गंभीर दिख रही है। दुख की बात यह है कि यह गंभीरता लोकतंत्र की बजाय उसकी रेटिंग पर है। अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस ने अपनी ‘डेमोक्रेसी अंडर सीज’ रिपोर्ट में कहा है कि भारत के लोगों की आजादी में कुछ कमी आई है और भारत एक स्वतंत्र देश से आंशिक स्वतंत्रता वाला देश हो गया है।

इसी तरह स्वीडन के गोटेनबर्ग विश्वविद्यालय से संबद्ध ‘वी-डेम इंस्टीट्यूट’ ने अपनी ‘2020 की लोकतंत्र रिपोर्ट’ में कुछ अन्य देशों के साथ ही भारत में भी लोकतंत्र को कमज़ोर होता बताया है। अपने ‘उदार लोकतंत्र सूचकांक’ में इंस्टीट्यूट ने भारत को 179 देशों में से 90वां रैंक दिया है। इस रिपोर्ट का कहना है कि मीडिया, सिविल सोसाइटी और विरोध के लिए भारत में स्थान सिकुड़ रहा है, जिसके चलते लोकतंत्र के रूप में भारत अपना स्थान खो सकता है।

विभिन्न अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां भारत की आर्थिक स्थिति को जब-तब शोचनीय बताती रहती हैं, हमारे शिक्षा संस्थानों को बेहद पिछड़ी हुई रैंकिंग देती रही हैं और हमारे शहरों को सबसे ज़्य़ादा प्रदूषित घोषित करना तो उनका रोज का काम है। उन पर भारत सरकार में आम तौर पर ज्यादा प्रतिक्रिया नहीं होती। शायद इसलिए कि उन मामलों के लिए केवल मौजूदा सरकार जिम्मेदार नहीं मानी जा सकती जबकि यह मामला लोकतंत्र की स्थिति का है जिसकी जिम्मेदारी सीधे तात्कालिक सरकार पर आयद होना लाजमी है।

किसी भी देश में लोकतंत्र की सबसे बड़ी कारक सरकार है और वही उसे फैसिलिटेट कर सकती है। दुनिया भर के अनुभव यह रहे हैं कि किसी देश के संविधान में क्या लिखा है, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वहां की सरकारें संविधान में लिखे हुए को लागू किस हद तक करती हैं और उसे लागू करने का उनका तरीका क्या है।

शायद इसीलिए सरकार को ये रिपोर्टें अपने खिलाफ किसी बड़ी खबर की तरह लगीं। पहले तो उसने इन रिपोर्टों को भ्रामक और गलत बताते हुए उनके कुछ बिंदुओं पर जवाब दिया। फिर विदेश मंत्री एस जयशंकर एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में बोले कि यह डेमोक्रेसी की बात नहीं है, बल्कि यह तो हिपोक्रेसी है। ये वे लोग हैं जिनके मुताबिक चीजें नहीं चलतीं तो उनको बुरा लगता है। जयशंकर ने कहा कि हमारी भी आस्थाएं हैं, मान्यताएं और मूल्य हैं। हम हाथ में कोई धर्म-ग्रंथ लेकर पद की शपथ नहीं लेते। ऐसा और किस देश में होता है? उन्होंने यह भी कहा कि हमें लोकतंत्र की स्थिति पर किसी से प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है। उन लोगों से तो बिल्कुल नहीं, जिनका अपना एक एजेंडा है।

इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधियों के जवाब से ऐसा लगता है, मानो वे विपक्ष के किसी आरोप का जवाब दे रहे हों। आप पाएंगे कि इस समय पूरे देश में यही हो रहा है। सत्ता में पार्टी कोई भी हो, वह अपने खिलाफ उठने वाले हर मामले को राजनैतिक अथवा विरोधियों द्वारा प्रेरित बता कर रफादफा कर देना चाहती है। केवल केंद्र की नहीं, राज्यों की सरकारें भी यही कर रही हैं। लेकिन इस तरह तो किसी भी समस्या का कोई हल नहीं निकल सकता, बल्कि समस्या और बढ़ती जाती है, चुपचाप।

भारत के लोकतंत्र को दुनिया कैसे आंकती है, यह पूरे देश और हर नागरिक का सरोकार होना चाहिए। अगर कोई विदेशी या अंतरराष्ट्रीय संस्था इसमें कोई खामी बताती है तो उसे सुधारने का प्रयास होना चाहिए। इस प्रयास में सभी राजनैतिक पक्ष, तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं खास कर मीडिया और न्यायपालिका और नागरिक समूह भागीदार बनने चाहिए। मगर सरकार इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें राज्यों की सरकारें भी आती हैं क्योंकि कानून-व्यवस्था का विषय उनका है जो कि मानवाधिकारों तक पहुंचता है और इसलिए लोकतंत्र का बेहद खास पहलू है। इसके बावजूद, प्रमुख और सबसे पहले है केंद्र की सरकार।

मगर प्रतिक्रिया में हो यह रहा है कि अपना विदेश मंत्रालय इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार कर रहा है कि भारत का भी कोई स्वतंत्र ‘थिंक टैंक’ हो जो हर साल ‘विश्व लोकतंत्र रिपोर्ट’ और ‘ग्लोबल प्रेस फ्रीडम इंडेक्स’ जारी करे। ऐसी कोई संस्था बनाने की सलाह पत्रकार ए सूर्यप्रकाश से मिली है। उन्होंने इस बारे में कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था जो प्रधानमंत्री कार्यालय से विदेश मंत्रालय पहुंचा। क्योंकि यह पत्र पीएमओ से आया, इसलिए भी विदेश मंत्रालय इस प्रस्ताव को गंभीरता से ले रहा है।

ए सूर्यप्रकाश कुछ समय पहले प्रसार भारती के अध्यक्ष थे और फिलहाल नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी के कार्यकारी सदस्य हैं। उनका कहना है कि भारत आज भी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यहां अगर ‘मोदी सबसे खराब प्रधानमंत्री’ हैशटैग ट्रेंड कर सकता है तो और बोलने की आजादी क्या होती है? उनके मुताबिक हर देश में कुछ न कुछ कमी रहती ही है, इसलिए भारत के लोकतंत्र को कमतर दिखाना गलत है।

उनका यह कहना एकदम सही है कि हर देश में कुछ न कुछ कमी होती है। इसीलिए लोकतंत्र एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। उसकी कोई आदर्श स्थिति शायद कभी नहीं हो सकती। कोई देश इसका दावा भी नहीं कर सकता। उसमें सुधार की गुंजाइश कभी खत्म नहीं होती और न होगी। इसीलिए कहीं आंशिक तो कहीं ज्यादा लोकतंत्र माना जाता है। हर देश की कोशिश होनी चाहिए कि उसके यहां जैसा भी लोकतंत्र है उसे अगले स्तर पर कैसे ले जाया जाए। और अगर कोई इसमें खामी बता रहा है तो उसे दूर कैसे किया जाए।

लोकतंत्र का सबसे बड़ा लक्षण और पैमाना यह है कि हर किसी को समान रूप से सम्मान, अधिकार, अवसर और सुविधाएं हासिल हों। विपन्न, अकेले और असंगठित लोगों को भी। वहां का तंत्र ऐसे लोगों का भी वैसा ही ख्याल रखे जैसे उन लोगों का रखता हो जो समूह में हैं और संगठित हैं या जो तंत्र पर दबाव डाल पाने की हालत में हैं। यानी तंत्र ऐसा हो जो बहुसंख्य की मर्जी से तय तो हो, मगर जो बाकी लोगों को अनदेखा और उपेक्षित न छोड़ दे, यानी जिसके लिए सभी समान हों। वैसे भी, लोकतंत्र कोई छुपी हुई चीज नहीं हो सकती। उसे उजागर होना चाहिए, जिसका अनुभव सब लोग हर कहीं, हर समय, हर कदम पर करें और जिसे किसी को बताना न पड़े। उसका दावा न करना पड़े। आप किसी से जबरन नहीं मनवा सकते कि आपका लोकतंत्र बहुत अच्छा है।

यह समझना जरूरी है कि अभिव्यक्ति की आजादी ही असल में आज़ादी की अभिव्यक्ति है। इसलिए जहां कोई भी विचार थोपा जाए, वहां लोकतंत्र नहीं रहता। आप किसी पर लोकतंत्र का विचार भी थोपें तो वहां लोकतंत्र नहीं रह जाएगा।

बड़े आराम से कोई ऐसी शोध संस्था बनाई जा सकती है जो लोकतंत्र की रैंकिंग का देसी संस्करण जारी करने लगे। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। मगर यह वैसा ही होगा जैसे हम नोबेल पुरस्कार अथवा ऑस्कर जैसा कोई बड़ा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार शुरू कर दें। आप चाहें तो अपने पुरस्कार में दूसरों से ज्यादा पैसा दे सकते हैं और उसके लिए दूसरों से ज्यादा भव्य समारोह आयोजित कर सकते हैं।

मगर कोई पुरस्कार धीरे-धीरे विश्वास अर्जित करता है। उसकी निष्पक्षता, परंपरा और उसका इतिहास उसे स्थापित करता है या फिर उसे निरर्थक बना देता है। ऐसा ही इन संस्थाओं के साथ है। अगर कोई संस्था अंतरराष्ट्रीय रेटिंग देगी तो वैश्विक स्तर पर उसे विश्वास अर्जित करना होगा जिसमें बरसों भी लग सकते हैं।

यह भी संभव है कि ऐसी कोई संस्था बने तो देश में कोई दूसरी संस्था भी खड़ी हो जाए और वह भी देश-विदेश के लोकतंत्र की रैंकिंग देने लगे। हो सकता है कि दोनों की राय अलग-अलग हो। यह भी संभव है कि ऐसी कई संस्थाए बन जाएं और लोकतंत्र को लेकर हालात शोर-शराबे जैसे हो जाएं। उससे किसी का हित नहीं होने वाला। इससे बेहतर स्थिति तो यह होगी कि कोई स्वतंत्र शोध संस्था ऐसी बनाई जाए जो निरंतर यह बताती रहे कि अपने लोकतंत्र के और शोधन के लिए आगे क्या किया जाए और कैसे किया जाए।

इसके जवाब में या होड़ में अगर ऐसी कई संस्थाएं भी बन जाएं, तब भी कोई नुक्सान नहीं होगा। हालांकि वहां भी मसला विश्वसनीयता का ही रहेगा। वास्तव में, यही तो सारा मसला है। हमारी तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं कितने भी दावे कर लें, वे इसी विश्वसनीयता के संकट से तो पीड़ित हैं।