न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क

सुशील कुमार सिंह

क्योंकि महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद ने उन्हें ‘देशबंधु’ बताया था, इसलिए पानीपत में जन्मे रतिराम गुप्ता का नाम ही देशबंधु गुप्ता पड़ गया था।

वे संविधान सभा के सदस्य भी बने, जहां उन्होंने दिल्ली की बढ़ती आबादी का हवाला देते हुए संसद में दिल्ली का प्रतिनिधित्व बढ़ाने और दिल्ली को एक निर्वाचित व जवाबदेह सरकार देने की पैरवी की थी।

यह अलग बात है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर सहित कई बड़े नेता इस विचार के विरुद्ध थे, मगर इससे साफ है कि आजादी के तुरंत बाद ही दिल्ली का राजनैतिक दर्जा बढ़ाने की मांग शुरू हो गई थी, वह भी इस स्तर पर। इसी का नतीजा था कि तब दिल्ली को ‘सी स्टेट’ बनाया गया, यानी केंद्र शासित क्षेत्र होते हुए भी विधानसभा दी गई।

21 नवंबर 1951 को दिल्ली से कलकत्ता (या कोलकाता) जाते समय विमान दुर्घटना में महज पचास साल की उम्र में देशबंधु गुप्ता का निधन हो गया। दिल्ली के पहले विधानसभा चुनावों में तब केवल चार महीने बचे थे और यहां की राजनीति में उनकी हैसियत ऐसी थी कि जीवित रहते तो वे ही यहां के पहले मुख्यमंत्री बनते। उनके नहीं रहने पर यह रुतबा चौधरी ब्रम्ह प्रकाश यादव को मिला।

कमाल यह था कि शकूरपुर गांव के रहने वाले चौधरी ब्रम्ह प्रकाश जब मुख्यमंत्री बने तो कुल चौंतीस साल के थे।

1942 में नितांत नौजवानी में भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी सक्रियता से उन्हें जो लोकप्रियता मिली थी वह शहर के बाकी नेताओं पर भारी पड़ती थी। पहले जब दिल्ली में ‘ग्वालियर एंड नॉर्दर्न इंडिया ट्रांसपोर्ट कंपनी’ की बसें चलती थीं और 1948 में सरकारी बसें शुरू होने के बाद भी, ब्रम्ह प्रकाश अक्सर बसों में सफर करते दिखते थे।

वे शहर में कहीं भी सड़क किनारे किसी चाय की दुकान पर लोगों से बतियाते मिल जाते थे। कभी चांदनी चौक में, कभी करोल बाग, पहाड़गंज, नजफगढ़ या महरौली में। कई बार लोग अपनी परेशानियां उन्हें बस में या चाय की दुकान पर ही बताने लगते और चौधरी ब्रह्म प्रकाश पर्याप्त धैर्य से उन्हें सुनते।

शिवचरण गुप्ता कहा करते थे कि उस समय की बातें लोगों को इसलिए अचंभित करती हैं कि तब सिक्योरिटी का कोई मसला नहीं था। हालत यह थी कि संसद भवन परिसर के भीतर से बसें गुजरती थीं। विजय चौक वाले गेट से घुसतीं और रकाबगंज वाले गेट से बाहर निकलतीं।

उनका कहना था कि 1956 में जब सोवियत नेता बुल्गानिन और ख्रुश्चेव भारत यात्रा पर आए तो एक सुबह पंडित जवाहर लाल नेहरू उन्हें लेकर सैर को निकले और फुटपाथ पर चलते हुए तीन मूर्ति भवन से इंडिया गेट बल्कि कर्ज़न रोड (कस्तूरबा गांधी मार्ग) तक पहुंच गए। दोनों देशों के कुछ अधिकारी और दो-तीन पुलिस अफसर उनके पीछे करीब पंद्रह गज की दूरी पर चल रहे थे। ट्रैफिक भी चल रहा था, क्योंकि उसे रोकने का कोई चलन तब था ही नहीं। तब लोगों ने यह भी देखा कि पंडित नेहरू पेड़ से फुटपाथ पर गिरे जामुन उठा कर मेहमान नेताओं को कुछ बता रहे हैं।

शिव चरण गुप्ता के शब्द थे कि आज़ादी की लडाई में नेता लोग आम लोगों के साथ इतने जुड़ गए थे कि उनसे किसी खतरे की बात वे सोच ही नहीं सकते थे, इसलिए सिक्योरिटी कोई मुद्दा नहीं था।

शिव चरण गुप्ता अब नहीं हैं। दिल्ली की उस पहली यानी चौधरी ब्रम्ह प्रकाश की सरकार के समय वे संसदीय सचिव रहे और फिर मंत्री भी रहे थे। वे बताते थे कि किसानों की कोऑपरेटिव सोसायटियां बनवाना चौधरी ब्रम्ह प्रकाश का सबसे प्रिय विषय था। वे दिल्ली और आसपास के गांवों में ऐसी सोसायटियां बनवाना चाहते थे।

इसके लिए ब्रम्ह प्रकाश ‘अमूल’ के संस्थापक डॉ. वर्गीज़ कुरियन के संपर्क में भी रहे। फिर, बंटवारे की हिंसा के कारण पाकिस्तान से जो लाखों शरणार्थी दिल्ली आ पहुंचे थे, उनके लिए तरह-तरह के इंतजाम करने में केंद्र सरकार के साथ ब्रम्ह प्रकाश को भी जुटना पड़ा था। मगर पेंच यह था कि दिल्ली के चीफ कमिश्नर (तब उपराज्यपाल की जगह चीफ कमिश्नर होते थे) से उनकी पटरी नहीं बैठती थी।

उनके समय में इस पद पर पहले शंकर प्रसाद थे और 1954 में आनंद दत्ताहय पंडित आ गए। ये दोनों सज्जन आईसीएस थे। देश आजाद हुए कुछ ही समय बीता था और अंग्रेजों के वक्त की आईसीएस अफसरों की साहबियत तब तक खत्म नहीं हो पाई थी। बल्कि कोई पूछ सकता है कि जब आईसीएस की जगह आईएएस होने लगे तब भी क्या हमारे अफसरों में साहबियत समाप्त हो पाई?

बहरहाल, शंकर प्रसाद के साथ तो फिर भी चौधरी ब्रम्ह प्रकाश का काम चल गया, लेकिन 1954 में जब आनंद दत्ताहय पंडित चीफ कमिश्नर बने तो स्थितियां बिगड़ने लगीं। उन दिनों कहा जाता था कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चौधरी ब्रम्ह प्रकाश की लोकप्रियता के कारण उन्हें मुख्यमंत्री तो बना दिया था, मगर उनका विश्वास चीफ कमिश्नर आनंद पंडित पर ज्यादा था।

फिर मार्च 1955 में गोविंद वल्लभ पंत केंद्र में गृहमंत्री बने। उन्हें भी ब्रम्ह प्रकाश नहीं भाते थे। दुर्भाग्य से तभी दिल्ली में घटिया गुड़ की खरीद का एक घोटाला सामने आया जिसकी छाया दिल्ली सरकार पर भी पड़ी। स्थितियां पहले ही ठीक नहीं थीं। सो, केंद्र ने चौधरी ब्रम्ह प्रकाश को इस्तीफा देने को बाध्य कर दिया और उनकी जगह गुरमुख निहाल सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया गया।

इसके साल भर बाद ही, अक्टूबर 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर दिल्ली को केवल एक केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील कर दिया गया। शहर का ‘सी स्टेट’ वाला विशेष दर्जा छीन लिया गया, यानी विधानसभा खत्म कर दी गई और निर्वाचित प्रतिनिधियों के नाम पर दिल्ली नगर निगम दे दिया गया।

इसके भी दस साल बाद, दिल्ली प्रशासन अधिनियम 1966 के जरिये विधानसभा का भ्रम देने वाली महानगर परिषद दी गई। लेकिन इसके पास कोई विधायी अधिकार नहीं थे, बल्कि दिल्ली में शासन चलाने के लिए इसकी भूमिका उपराज्यपाल को सलाह देने भर की थी।

असल में मुद्दा यही है। केंद्र की सत्ता में कोई भी पार्टी हो, वह मूल रूप से यही चाहती है कि दिल्ली में उपराज्यपाल के जरिये उसका शासन चले और अगर यहां विधानसभा हो भी तो उसकी हैसियत सलाहकार भर की रहे। तो जब महानगर परिषद मिली, तब भी दिल्ली नगर निगम के पास अधिकार और बजट ज्यादा था।

पानी और बिजली सप्लाई के साथ ही फायर ब्रिगेड, बल्कि कुछ समय के लिए ट्रांसपोर्ट भी उसके नियंत्रण में रहा। नतीजा यह हुआ कि शहर में महानगर परिषद का राजनैतिक ओहदा बड़ा होते हुए भी पूछ नगर निगम की ज्यादा थी।

मुख्य कार्यकारी पार्षद प्रकारांतर से दिल्ली के मुख्यमंत्री जैसे थे, मगर इस पद पर रहते हुए न भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा संतुष्ट थे और न कांग्रेस के जगप्रवेश चंद्र। इनमें से जगप्रवेश चंद्र का हाल यह था कि वे अपनी प्रेस रिलीज खुद बांटते फिरते थे, अकेले।

कुल मिला कर इस दौर में दिल्ली का कामकाज उपराज्यपालों के हाथ रहा। महानगर परिषद और दिल्ली नगर निगम अपने-अपने अधिकार वाले क्षेत्रों में प्रस्ताव पास कर-कर के उपराज्यपाल को भेजते रहते और वहां से मंजूरी की मोहर लगने की राह तकते रहते। कांग्रेस के जिन हरि किशन लाल भगत के बारे में कहा जाता था कि उनकी मर्जी के बिना दिल्ली में पत्ता तक नहीं हिलता, उन भगत जी को पत्रकारों ने बात-बात पर दिल्ली के कामों के लिए केंद्रीय मंत्रियों के चक्कर लगाते देखा था।

केंद्र में जो भी पार्टी सत्तारूढ़ रही उसका जोर इस स्थिति को कायम रखने में रहा। उनमें से कोई भी पार्टी यह नहीं चाहती थी कि दिल्ली में कोई विधानसभा हो और अगर है तो वह अपनी मर्जी से काम करे। दिल्ली ने चौधरी ब्रम्ह प्रकाश के समय भी यही देखा और बाद में दोबारा विधानसभा मिलने पर बने मुख्यमंत्रियों के वक्त भी।  (जारी)