न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
राजेश जोशी
जाति-आधारित जनगणना के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी सरकार ने ख़ुद को अपने ही बुने जाल में उलझा लिया है. इस उलझन से निकलने के लिए उसे ख़ुद अपने किए कराए पर पानी फेरना पड़ा. भारतीय गणतंत्र के संघात्म ढाँचे को ठेंगे पर रखते हुए केंद्र सरकार ने पिछड़ी जातियों की शिनाख़्त करने का हक़ राज्यों से छीन लिया था. लेकिन तब सरकार के नीति नियंताओं को इस बात का अंदाज़ा नहीं हुआ कि उनका चला दाँव उन्हीं पर पलटमार करेगा.
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई को फ़ैसला सुनाया कि आरक्षण के लिए पिछड़े वर्ग की जातियों की शिनाख़्त करते का अधिकार सिर्फ़ केंद्र सरकार को है. अदालत ने ये फ़ैसला संविधान के 102वें संशोधन के आधार पर किया गया जिसे ख़ुद मोदी सरकार ने 2018 में पारित किया ताकि केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) को संवैधानिक दर्जा मिले और उसके ज़रिए ओबीसी जातियों की शिनाख़्त का काम पूरी तरह केंद्र के हाथ मे आ जाए.
लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण के मामले में केंद्र की पुनर्विचार याचिका 102वें संविधान संशोधन का हवाला देते हुए ख़ारिज कर दी तो सरकार के सामने ओबीसी सूची बनाने का अधिकार वापिस राज्य सरकारों को सौंपने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा. विपक्षी पार्टियाँ, ख़ास तौर पर पिछड़े वर्ग में आधार रखने वाली पार्टियों ने 2018 में हुई संसद की बहसों के दौरान भी सरकार को ख़बरदार किया था कि अगर केंद्र ये अधिकार ख़ुद अपने हाथ में लेती है तो आरक्षण की व्यवस्था लड़खड़ा जाएगी.
मंगलवार को मोदी सरकार के लाए विधेयक पर संसद की मोहर लग गई और ग़ौर करने लायक़ बात ये है कि सभी विपक्षी पार्टियों ने सरकार के विधेयक का समर्थन किया. लेकिन सिर्फ़ इतने से ही मोदी सरकार की असमंजस ख़त्म नहीं हुई है. अब जाति-आधारित जनगणना का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है, लेकिन केंद्र सरकार पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि 2021 में जाति-आधारित जनगणना करने का उसका कोई इरादा नहीं है.
गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 20 जुलाई को लोकसभा में लिखित उत्तर दिया कि, “भारत सरकार ने नीतिगत फ़ैसला किया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के अलावा जाति-आधारित जनगणना नहीं की जाएगी.” लेकिन अगस्त 2018 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 2021 की जनगणना की तैयारियों की एक बैठक के बाद ऐलान किया था कि “पहली बार ओबीसी संबंधी आँकड़े इकट्ठा करना भी तय हुआ है.”
तब सरकार को शायद इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि ओबीसी की शिनाख़्त करने के लिए अगर जाति-आधारित जनगणना की गई तो आरक्षण की पूरी व्यवस्था पर ही फिर से नज़र डालनी पड़ेगी और हो सकता है कि आरक्षण के दायरे में आने वाली जातियों का प्रतिशत बढ़ाना भी पड़े. जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू की थीं तब देस में पिछड़ी जातियाँ 52 प्रतिशत बताई गई थीं और उन्हें सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. इससे अगड़ी जातियाँ आगबबूला हो गईं और विश्वविद्यालयों में मंडल-विरोधी आंदोलन की चिंगारियाँ फूट पड़ीं.
पिछड़ी जातियों के नेताओं का कहना है कि जाति आधारित जनगणना करने से जातियों के बारे में नए आँकड़े सामने आएँगे और उनके आधार पर आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की भी माँग होगी. केंद्र ने पिछड़ी जातियों की शिनाख़्त करने का हक़ ख़ुद ले तो लिया मगर उसे बाद में एहसास हुआ कि वो कैसी विस्फोटक स्थिति को हाथ लगाने जा रही है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मोदी सरकार ने ये ज़िम्मेदारी वापिस राज्य सरकारों को सौंप दी.
पर इसके बावजूद उसके सिर से बला नहीं टली. जहाँ ओबीसी तय करने का अधिकार राज्यों को वापिस देने के मुद्दे पर लोकसभा में पक्ष और विपक्षी पार्टियों ने ऐतिहासिक एकजुटता दिखाई, वहीं इसी मुद्दे पर नरेंद्र मोदी समर्थक और उनके विरोधी भी एकजुट हो रहे हैं. बिहार में बीजेपी की सहयोगी पार्टी जनता दल (युनाइटेड) और विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल जाति-आधारित जनगणना पर एक साथ नज़र आ रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और विपक्षी राजद के तेजस्वी यादव की मुलाक़ात भी हुई.
यही नहीं, लोकसभा में हुई बहस में हिस्सा लेते हुए उत्तर प्रदेश के बदायूँ से भारतीय जनता पार्टी की सांसद डॉक्टर संघमित्रा मौर्य ने जिस तरह से खुलकर जाति-आधारित जनगणना की वकालत की उससे सत्तारूढ़ पार्टी के लिए शर्मनाक स्थिति पैदा हो गई. हालाँकि प्रकट तौर पर डॉ. मौर्य ने काँग्रेस को ही निशाने पर रखा, पर उनके भाषण का मक़सद नरेंद्र मोदी सरकार पर जाति-आधारित जनगणना करने के लिए दवाब डालना ही था. उन्होंने कहा, “हर राज्यों में जानवरों तक की गिनती हुई, कि किस राज्य में किस ज़िले में कितने जानवर हैं. किसकी बहुतायत संख्या है. लेकिन बैकवॉर्डों की गिनती कहीं पर नहीं की गई.”
सत्तारूढ़ पार्टी की सांसद का यह कहना मायने रखता है. कोई भी कह सकता है कि काँग्रेस ने जनगणना के नतीजे अपने कार्यकाल में प्रकाशित नहीं करवाए, पर अब तो काँग्रेस की सरकार नहीं है. अब फ़ैसला नरेंद्र मोदी को करना है. क्या वो जाति-आधारित जनगणना करवाने का राजनीतिक जोखिम उठाने की हिम्मत दिखाएँगे? (आभार – समय की चर्चा )
राजेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार और हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, जयपुर में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हैं)
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