न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
राजेश जोशी
अफ़ग़ानिस्तान में बीस बरस बाद तालिबान का सत्ता पर क़ाबिज़ होना पाकिस्तान की जीत है. इस बात को किसी और ढंग से घुमाकर नहीं कहा जा सकता.
और बीस साल तक अफ़ग़ानिस्तान के इंफ़्रास्ट्रक्चर में अरबों डॉलर झोंकने के बावजूद भारत न ऊधो में है और न माधो में. उसे लगातार अलगाव का सामना करना पड़ रहा है जबकि पाकिस्तान को हर बातचीत में अमरीका, रूस और चीन से तवज्जो मिल रही है.
पाकिस्तान की फ़ौज और ख़ुफ़िया एजेंसी इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (आइएसआइ) ने अपने मदरसों में जिस तालिबान का बीज बोया, उसे खाद-पानी यानी रसद-हथियार मुहैया करवा कर एक ख़तरनाक इस्लामी संगठन में बदला, उसके काबुल पर क़ाबिज़ होते ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने एक क्षण भी नहीं गँवाया और कहा कि अफ़ग़ानिस्तान के लोगों ने “ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ डाला है.”
मगर 2001 में तालिबान की सत्ता को उखाड़े जाने के बाद भारत को विश्वास हो चला था कि वो अपने पड़ोस में चल रहे भू-राजनीति के अंतरराष्ट्रीय खेल में अमरीका के साथ खड़े होकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और पाकिस्तान को अप्रासंगिक कर देगा. इस सोच की ठोस वजह थी. न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 11 सितंबर के हमलों के बाद ‘वॉर ऑन टेरर’ के दिनों में पाकिस्तान की छवि इस्लामी आतंक को बढ़ावा देने वाले मुल्क की थी. यहाँ तक कि अमरीका ने घुड़की देकर पाकिस्तान को ‘वॉर ऑन टेरर’ अभियान में मदद करने पर मजबूर किया.
तब भारतीय विदेश नीति के नीति नियंता मानकर चल रहे थे कि अफ़ग़ानिस्तान में करोड़ों डॉलर लगाकर वो पाकिस्तान को अप्रासंगिक कर देंगे. पर ऐसा हो नहीं पाया. उलटे, अमरीका और तालिबान के बीच दोहा में हुई बातचीत में भारत की कोई भूमिका नहीं थी जबकि पाकिस्तान . और अब जब तालिबान फिर से अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा कर चुका है, क़तर में रूस की पहल पर होने वाली बैठक में भी भारत को न्यौता नहीं दिया गया है. इस बैठक में अमरीका, चीन और पाकिस्तान शामिल होंगे.
भारत को ये बात नागवार गुज़र रही है कि पाकिस्तान को रूस, चीन और अमरीका की ओर से इतनी तवज्जो क्यों मिल रही है, जबकि अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण की फ़ंडिंग में नई दिल्ली ने कोई क़सर नहीं की थी. वहाँ के 400 से ज़्यादा इंफ़्रास्ट्रक्टर में भारत ने पैसा लगाया है. यहाँ तक कि काबुल में संसद की इमारत भी भारत ने बनाई जिसका उद्घाटन 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था. ये सब अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी फ़ौजों की मौजूदगी के कारण संभव हो सका. तालिबान को जब जब मौक़ा मिला उसने अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय परियोजनाओं पर हमला किया.
पर बिसात 29 फ़रवरी 2020 को पलट गई जब अमरीका और तालिबान के बीच शांति समझौते पर दस्तख़त हुए और ये माना जाने लगा कि अब अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य में तालिबान महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. भारत इसके लिए तैयार नहीं था. ये साफ़ तौर पर पाकिस्तान की जीत थी. चीन ने भी काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े से पहले ही उनके प्रति अपना रवैया बदलना शुरू कर दिया था.
कुछ विश्लेषक मानते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का क़ब्ज़ा भारत के लिए झटका ज़रूर है लेकिन अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है. उन्हें उम्मीद है कि तालिबान वैसे अफ़ग़ानिस्तान का शासन नहीं चलाएगा जैसे चीन और पाकिस्तान चाहते हैं. लंदन के किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर हर्ष वी. पंत कहते हैं कि भारत को मालूम था कि आख़िरकार अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की भूमिका महत्वपूर्ण होगी, लेकिन उसे ये मालूम नहीं था कि तालिबान बिजली की गति से पूरे देश पर छा जाएँगे और हर संस्था ताश के पत्तों की तरह इतनी जल्दी ढह जाएगी.
भारतीय विश्लेषक और कूटनीतिज्ञ उम्मीद कर रहे हैं कि जल्दी ही अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जीत का जश्न ख़त्म होगा और चीन और पाकिस्तान के साथ उसके अंतरविरोध सामने आने लगेंगे. मगर फ़िलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफ़ग़ानिस्तान से सिख और हिंदू शरणार्थियों को भारत में शरण देने की बात कहकर हिंदुत्व समर्थकों को थोड़ा दिलासा देने की कोशिश ज़रूर की है. (आभार – समय की चर्चा)
राजेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार हैं और हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय, जयपुर में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर हैं.
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