बॉस्टन, अमेरिका से सुधांशु मिश्रा

हारने से पहले और बाद में डोनाल्ड ट्रम्प खेमे की तरफ से किस हद तक झूठे आरोप लगाए गए, अब यह सब जानते हैं। पेंसिलवेनिया प्रांत में राष्ट्रपति के साथ सेनेट और प्रतिनिधि सभा की बीस सीटों के लिए भी वोट पड़े थे। प्रतिनिधि सभा के लिए रिपब्लिकन पार्टी को इस प्रांत से खासी सीटें भी मिलीं। लेकिन मुकदमे में सिर्फ राष्ट्रपति चुनाव के वोट रद्द करने की मांग की गई।

ऐसी तिकड़मों को हंसी में नहीं उड़ाया जा सकता। वास्तव में ये बेहद खतरनाक हैं क्योंकि यह आशंका खत्म नहीं हुई है कि कोई रिपब्लिकन सेनेटर या रिप्रेज़ेंटेटिव या विधायक ट्रम्प के समर्थन में अति-उत्साह में लोकतंत्र को पलीता लगाने वाली कोई हरकत कर डाले। हाल के दर्जनों सर्वेक्षणों में यह बात बार-बार सामने आई है कि रिपब्लिकन पार्टी के ज्यादातर सदस्य अब भी मान रहे हैं कि ट्रम्प के साथ बेईमानी हुई है। इन लोगों को कितना भी समझाने का प्रयास करो, वे अपनी राय बदलने को तैयार नहीं। जाहिर है, ऐसे लोगों ने अपने दिलो-दिमाग़ बंद कर रखे हैं। ऐसे में कानूनी उपाय खत्म होने के बाद ऐसा सोचने वालों को भड़काने का ही रास्ता बचता है जो नए प्रशासन के लिए दिक्कतें और बढ़ा सकता है।

सेनेट या प्रतिनिधि सभा के कई रिपब्लिकन सदस्यों के हवाले से खबरें आई हैं कि उन्होंने निजी तौर पर बायडन से सम्पर्क किया है, हालांकि वे अभी खुल कर सामने आने को तैयार नहीं हैं। बायडन ने पिछले हफ्ते इसकी पुष्टि भी की। इनमें से कई सदस्यों का सोचना था कि हड़कंप मचाने की ट्रम्प की रणनीति कामयाब नहीं होने वाली है।

ट्रम्प की रणनीति अभी चाहे कामयाब न हो, पर इसने भविष्य में अगले ‘ट्रम्प’ के लिए रास्ता जरूर बना दिया है। अमेरिकी लोकराज में ऐसे तत्वों का उदय सर्वथा अप्रत्याशित है। इन्हें चुनाव मैदान में हराना इस बार आसान रहा और अदालतों में हराना तो और भी आसान साबित हुआ, लेकिन अगर ट्रम्प और भविष्य में आने वाले उन जैसे नेताओं ने देश की संस्थाओं पर प्रहार जारी रखा तो सिर्फ वोटों से उन्हें हराना या दबाना शायद ही संभव रहे। दुनिया में आज ऐसे राजनीतिकों की कमी नहीं है जो लोकतांत्रिक संस्थाओं के रास्ते सत्ता में आ तो गए, लेकिन फिर उन्हीं संस्थाओं को एक-एक कर खत्म करने में लगे हैं। ऐसे देशों में विपक्ष की आवाज कुचलने, मीडिया को खरीदने या दबाने और संविधान की खुलेआम धज्जियां उड़ाने की शिकायतें आम हैं। राजनीतिक लफ्फाज़ी और अपने शासन की रीति-नीति में वे ट्रम्प से कम नहीं हैं। अंतर बस इतना है कि वे चुनाव जीत रहे हैं जो कि ट्रम्प नहीं कर सके।

आज आधी से अधिक दुनिया में स्थिति यह है कि ट्रम्प की शैली अपना कर कोई भी चतुर-चालाक राजनीतिक लोगों को बरगलाने में कामयाब हो सकता है। उसके हाथ में बस मीडिया की कुंजी रहनी चाहिए। अमेरिका में भी, ट्रम्पवाद का फायदा उठा कर कोई भी व्यक्ति अधिसंख्य लोगों को बरगला सकता है और अगला ‘ट्रम्प’ भी एक टर्म वाला राष्ट्रपति साबित होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। हो सकता है कि वह वे सब बेवकूफियां नहीं करे जो ट्रम्प ने कीं। यही नहीं, वह ट्रम्प की तरह भाग्यवश नहीं बल्कि अपनी राजनीतिक चतुराई से जीतेगा। अमेरिका में ऐसे नेताओं की लंबी लाईन लगी है जिनका राजनीतिक रुझान ठीक ट्रम्प जैसा ही है और जिनके साथ ट्रम्प जैसी बदनामियां भी नहीं जुड़ी हुईं हैं।

आज वास्तविकता यह है कि डेमोक्रेटिक पार्टी ट्रम्प की हार या अपनी जीत का जश्न भी नहीं मना पा रही है। देश के करीब 45 प्रतिशत वोटर ट्रम्प के साथ हैं या ट्रम्पवादी विचारधारा वाले अथवा उसके झंडाबरदार हैं। ट्रम्प ने जो बीज बोए हैं उनका असर गहरा दिखता है। डोनाल्ड ट्रम्प की हार से अमेरिकी लोकतंत्र इस बार तो बच निकला, मगर वह कब तक बचता रहेगा? इसीलिए जो बायडन के लिए अगले चार साल काफी कठिन रहने वाले हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि ट्रम्प ने हार नहीं मानी है और न मानने की उम्मीद ही है।

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सफलता जय-पराजय से ज्यादा पराजित पक्ष की स्वीकारोक्ति से नापी जाती है। इस स्वीकारोक्ति में यह समझदारी छिपी है कि अब दूसरे पक्ष को शासन चलाने का अवसर देना उचित है और पराजित पक्ष को सक्षम विपक्ष बनने का प्रयास करना चाहिए। कम से कम इस समय अमेरिका में ऐसी राजनीतिक भद्रता दिखाई नहीं दे रही। पराजित पक्ष का दुखी होना स्वाभाविक है, लेकिन अपनी हार पर समूची निर्वाचन प्रक्रिया को ही खारिज कर देना इस देश में अप्रत्याशित और चैंकाने वाला है।

और यह स्थिति इस सच्चाई के बावजूद है कि ट्रम्प की नाकामियां कोई कम नहीं रहीं। चार साल पहले 2016 में उन्होंने जो बड़े-बड़े वादे किए थे, उनमें से अधिकांश धरे रह गए हैं। मसलन, उन्होंने चीन को सबक सिखाने और वहां से फैक्टरियां और नौकरियां वापस लाने की बात कही थी, लेकिन चीनी सामान पर थोड़ा-बहुत टैरिफ लगाने के अलावा वे कुछ नहीं कर सके। इसी तरह विसकौंसिन प्रांत को उन्होंने दुनिया का आठवां आश्चर्य बना देने का दावा किया था, लेकिन वह भी खोखला रहा। उनके समय में देश में बेरोजगारी ऐतिहासिक ऊंचाई तक पहुंची और कोरोना को लेकर उनकी असफलता तो पूरी दुनिया देख रही है। मगर ट्रम्पवाद के सामने इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं। इसीलिए, डोनाल्ड ट्रम्प को चाहे अमेरिका ने परास्त कर दिया हो, लेकिन ट्रम्पवाद को थामने के लिए उसे लंबी लड़ाई लड़नी होगी। (आभार – समय की चर्चा )