महेंद्र पाण्डेय

न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क

अगर दुनिया की बढ़ती आबादी की भूख मिटानी है और पोषण का स्तर बढ़ाना है तो मिट्टी को और इसकी जैव-सम्पदा को बचाना ज़रूरी है। यह बात संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन ने कही है। उसने चेताया है कि सभी देशों को मिटटी को बचाने की पहल तेज कर देनी चाहिएI

इस ऑर्गनाइजेशन की मिट्टी से संबंधित ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया जितनी चर्चा जलवायु परिवर्तन की और वनों के विनाश की कर रही है, उतनी ही चर्चा मिटटी और इसकी जैव-विविधता के संरक्षण की भी होनी चाहिए। इसकी वजह यह है कि यह सीधे लोगों के पोषण से जुड़ा मसला है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मिटटी जीवन की उत्पत्ति का केंद्र है, पर औद्योगिक युग के बाद से इसका तेजी से विनाश किया जा रहा है। अनुमान है कि दुनिया की 25 प्रतिशत से अधिक जैव-विविधता मिटटी में, हमारे पैरों के नीचे रहती है। दुनिया में पृथ्वी के ऊपर की वनस्पतियों, वनों और जैव-विविधता की चर्चा तो खूब होती है, पर आँखों से ओझल यानी मिटटी के अन्दर रहने वाले जीवन के बारे में लोग जानते तक नहीं। जबकि जमीन के नीचे बसा जीवन ही मिटटी में पोषक पदार्थों का आधार है जो फसलों के जरिये हमारे शरीर में आता है। मिटटी में जितना कार्बन का भंडारण होता है, उसकी तुलना जंगलों के पेड़ों में संचयित कार्बन से की जा सकती है, पर इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। कार्बन के संचयन के कारण जलवायु परिवर्तन रोकने में मिटटी का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।

इस रिपोर्ट को मिटटी की जैव-विविधता से सम्बंधित पहली विस्तृत रिपोर्ट बताया जा रहा है जिसे दुनिया भर के 300 से अधिक वैज्ञानिकों ने तैयार किया। मिटटी को बनाने में हजारों साल लग जाते हैं, पर इसका क्षरण कुछ ही वर्षों में हो सकता है। रिपोर्ट के अनुसार मिटटी को जन्तुओं की त्वचा जैसा समझना चाहिए, जो बेहद पतली होती है, पर शरीर को सर्वाधिक सुरक्षा देती है। इस वर्ष के वर्ल्ड फूड प्राइज विजेता प्रोफ़ेसर रतन लाल, जो ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में कार्बन मैनेजमेंट विभाग के डायरेक्टर हैं, के अनुसार औद्योगिक क्रांति के बाद से लगभग 135 अरब टन मिटटी नष्ट हो चुकी है। इसके मुख्य कारण हैं– अत्यधिक खेती, अत्यधिक रासायनिक खाद, कीटनाशक और एंटीबायटिक्स का उपयोग, वनों का तेजी से कटना, जलवायु परिवर्तन, तापमान वृद्धि और लगातार सूखे वाले क्षेत्रों का बढ़ना।

सितम्बर 2018 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2030 तक पश्चिमी अफ्रीकी देशों में अनाज की उत्पादकता में 2.9 प्रतिशत और भारत में 2.6 प्रतिशत तक की कमी होगी, जबकि कनाडा और रूस में इनमें 2.5 और 0.9 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी। इस रिपोर्ट में कहा गया कि वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी दस अरब तक पहुँच जायेगी और फसलों की पैदावार कम होने से भूखे लोगों की संख्या बढ़ जाएगी। वर्ष 2000 से 2010 के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 7322 किलोजूल ऊर्जा प्राप्त करता है और इसमें से 66 प्रतिशत से अधिक गेहूं, चावल, मोटे अनाज और ऑयल पाम से प्राप्त होता हैI लेकिन तापमान वृद्धि के कारण वर्ष 2030 तक चावल, गेहूं, मक्का और ज्वार की उत्पादकता में 6 से 10 प्रतिशत तक की कमी आने की आशंका है, जोकि एक खतरे की घंटी है।

दुनिया में 10 फसलें ऐसी हैं जिनसे मानव जाति 83 प्रतिशत कैलोरी प्राप्त करती है। ये हैं– जौ, कसावा, मक्का, आयल पाम, रेपसीड, चावल, जई, सोयाबीन, गन्ना और गेहूंI हाल में ही ‘प्लोस वन’ नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार इन सभी फसलों का उत्पादन जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि से प्रभावित हो रहा है, हालांकि यह प्रभाव हर क्षेत्र में एक समान नहीं है। बहुत ठंडे क्षेत्रों में उत्पादन कुछ हद तक बढ़ रहा है जबकि गर्म इलाकों में यह घट रहा हैI यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनिसोटा, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कोपेनहेगेन के वैज्ञानिकों के संयुक्त दल ने किया है।

इस अध्ययन के हिसाब से तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण इन फसलों के उत्पादन में एक प्रतिशत तक की कमी आ चुकी है। आयल पाम के उत्पादन में 13.4 प्रतिशत की कमी आंकी गयी है जबकि सोयाबीन का उत्पादन 3.5 प्रतिशत बढ़ गया है। यूरोप, साउथ अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में उत्पादन कम हो रहा है जबकि लैटिन अमेरिका, एशिया और उत्तरी अमेरिका में उत्पादन बढ़ रहा है। पर, पूरी दुनिया के लिहाज से देखें तो इन फसलों की पैदावार घट रही है।

दरअसल पूरी खेती, भूमि की उपरी सतह, जिसे टॉप स्वायल कहते हैं, उस पर निर्भर करती है। विश्व में अनाज की कुल पैदावार का 95 प्रतिशत इसी से उगता हैI पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 50 प्रतिशत से अधिक भूमि की ऊपरी सतह नष्ट हो चुकी है और यही हाल रहा तो वर्ष 2075 तक धरती की पूरी ऊपरी सतह गायब हो चुकी होगी। इससे खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा, भूमि में पोषक पदार्थों की कमी होगी, भूमि बंजर होगी और भू-अपरदन की दर बढ़ेगी। जमीन से अवशोषित कार्बन वायुमंडल में पहुंचेगा जो तापमान वृद्धि को बढ़ावा देगा। कार्बन कम होने से जमीन में पानी की भी कमी होगी। ध्यान रहे, भूमि में एक प्रतिशत कार्बन वृद्धि होने पर एक एकड़ भूमि में 150 किलोलीटर अतिरिक्त पानी जमा होता है।

‘एनवायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव’ नामक जर्नल में प्रकाशित एक लेख के अनुसार तापमान वृद्धि के चलते गेहूं, चावल और जौ जैसी फसलों में प्रोटीन की कमी हो रही है। अभी दुनिया की लगभग 15 प्रतिशत आबादी प्रोटीन की कमी से जूझ रही है। वर्ष 2050 तक लगभग 15 करोड़ लोग इसमें और जुड़ जाएंगे। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व की लगभग 76 प्रतिशत आबादी अनाजों से ही प्रोटीन हासिल करती है, लेकिन मिटटी में पोषक तत्वों की कमी के कारण अनाजों में प्रोटीन घट रहा है। इन वैज्ञानिकों ने अपने निष्कर्ष का आधार उन लगभग 100 शोधपत्रों को बनाया जो फसलों पर वायुमंडल में बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड के प्रभावों पर आधारित थे।

इसी तरह ‘इंटरगवर्नमेंटल साइंस पॉलिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज’ की एक रिपोर्ट के अनुसार मानव गतिविधियों के कारण भूमि की बर्बादी से विश्व की 40 प्रतिशत से अधिक जनसँख्या, यानी लगभग 3.2 अरब लोग प्रभावित हो रहे हैं। यही नहीं, बहुत सी प्रजातियाँ विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ रही हैं और जलवायु परिवर्तन में तेजी आ रही है। इस संस्था में 129 देश शामिल हैं और संयुक्त राष्ट्र की चार संस्थाएं यूनेस्को, यूनेप, एफएओ और यूएनडीपी इसकी पार्टनर हैं। इस रिपोर्ट को 45 देशों के 100 विशेषज्ञों ने तैयार किया है जिसके मुताबिक भूमि का विकृतीकरण मौजूदा समय में मानव विस्थापन का सबसे बड़ा कारण है और इसके चलते युद्ध तक हो रहे हैं। (आभार – समय की चर्चा)