बॉस्टन (अमेरिका) से सुधांशु मिश्रा
न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
‘कैपीटल बिल्डिंग’ अमेरिका की राजधानी की एक ऐसी इमारत है जिसके गिर्द कोई चारदीवारी नहीं है। वजह? यह जनता के प्रतिनिधियों का स्थान है जहां राष्ट्रपति भी अनामंत्रित नहीं जा सकते। कई श्रेणी वाले सुरक्षा मानक वहां जरूर मौजूद हैं जिन्हें भेद पाना आसान नहीं, लेकिन पिछले सप्ताह यह सब ध्वस्त हो गया। जानबूझ कर भी और असावधानीवश भी। अतिवादियों के हमले से देश की संसद का मानो शील टूट चुका है और गृहयुद्ध के बाद पहली बार संसद भवन में फौज तैनात करनी पड़ी है।
संघीय जांच एजंसी एफबीआई के अनुसार अमेरिका की सार्वभौमिकता और स्वायतता को खतरा बाहरी नहीं, भीतरी ताकतों से है। उसके मुताबिक उस दिन की घटनाएं उसी दिन घटी हों, ऐसा नहीं है। इसकी तैयारी बरसों से थी जिसमें तेजी अश्वेत नस्ल के ओबामा के चुनाव जीतने के बाद आई और पिछले चार सालों के दौरान सत्ता से उसकी आक्रामकता को बराबर हवा दी गई। एफबीआई ने देश को सावधान किया कि जो-बॉयडन के पदग्रहण के दिन सभी प्रांतों के राजभवन पर हमले हो सकते हैं, जन-प्रतिनिधियों को बंधक बनाया जा सकता है और गवर्नरों व दूसरे अफसरों पर कातिलाना हमला हो सकता है।
एफबीआई और डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस ने छह जनवरी की घटनाओं को आतंकवाद और देशद्रोह कहा है। जो लोग गिरफ़्तार किए गए हैं उन पर यही दफाएं लगाई गई हैं। षड़यंत्र कितना व्यापक है, इसकी जांच के लिए विशेष सेल बनाया गया है जो पैसे के साथ-साथ दूसरी सभी गतिविधियों की पड़ताल करेगा। इस जांच-पड़ताल में केंद्र और प्रांतों की सभी एजंसियां- स्थानीय पुलिस और प्रशासन भी शामिल हैं। ऐसा जांच अभियान देश के इतिहास में पहली बार चल रहा है।
इलेक्टोरल कालेज के वोटों के सत्यापन के दौरान हड़कम्प की तैयारी की चेतावनी व्हाईट हाउस को समय से पहुंचा दी गई थी, लेकिन वहां से कोई एहतियाती कदम नहीं उठाया गया। उलटे उसी सुबह राष्ट्रपति ट्रम्प ने कैपीटल बिल्डिंग के पार रैली की जिसमें उनके बेटे, निजी वकील रूडी जुलियानी समेत कुछ सेनेटरों और प्रतिनिधि सभा के सदस्यों ने बेहद भड़काऊ भाषण दिए और भीड़ को संसद की तरफ कूच करने को उकसाया। उसके बाद जो हुआ वो सबके सामने है। साजिश की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजधानी में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के मुख्यालयों से जीवित टाईम बम बरामद हुए। एफबीआई का कहना है कि पार्टी मुख्यालयों में बम ध्यान बंटाने के लिए रखे गए थे ताकि कैपिटल बिल्डिंग वाली योजना में बाधा न पड़े।
हैरानी की बात है कि देश में बड़ी आबादी को अभी भी भ्रम है कि अज्ञात ताकतों ने साजिश करके उनके उम्मीदवार ट्रम्प के हाथ से जीती बाजी छीनी है। इतनी बड़ी आबादी का मतिभ्रम देश के स्वास्थ्य के लिए कितना नुकसानदेह है, इस पर समाजविज्ञानी अर्से तक विचार करते रह सकते हैं।
पिछले चार सालों से ट्रम्प दोहरी भूमिका निभाते रहे हैं- एक तरफ राष्ट्रपति वाली, दूसरी तरफ दुनिया के अधिनायकवादी रुझान वाले सत्ताधारियों से यारी-दोस्ती, इंटरनेट और सोशल मीडिया पर बेवजह आग उगलने वालों से हमदर्दी, झूठ फैलाने वालों और ‘अमेरिका सिर्फ गोरों का’ मानने वालों और नस्लवादियों, कट्टरपंथियों के गठजोड़ के सरगने की। छह जनवरी की सुबह भड़काऊ भाषण के पहले तक लगता था कि चुनाव हारने के बावजूद ट्रम्प का राजनीतिक करियर खत्म नहीं होगा और उनके धुर-अतिवादी प्रलापों का व्यापक समर्थन उन्हें दोबारा सत्ता दिला सकता है और रिपब्लिकन पार्टी पर उनका दबदबा अगले बना रह सकता है और जो-बॉयडन व डेमोक्रेटिक पार्टी की नाक में दम किए रह सकता है। लेकिन कैपिटल हिल की घटनाओं से पांसा पलट गया। ट्रम्प ट्विटर से बेदखल हुए, उनके समर्थन में पैसे जुटाने वाले देशव्यापी अभियानों का बोरिया-बिस्तर सिमटा और उनके समर्थक अनेक सांसदों को पुनर्विचार करने पर मजबूर होना पड़ा।
इन अप्रत्याशित घटनाओं की पृष्ठभूमि में ट्रम्प पर दोबारा महाभियोग की तैयारी की नज़ीर बनी। रिपब्लिकन पार्टी का एक धड़ा देश की एकता व अखंडता के लिए ‘माफ करो-जाने दो’ की आवाजें उठाता रहा, लेकिन अतिवाद को करारी शिकस्त देने का जज़्बा भारी पड़ा। अतिवादी राजनीतिकों का यही हश्र होता है। ट्रम्प पर दूसरे महाभियोग को इसी नज़रिए से देखा और जांचा जाना चाहिए।
संसद पर हमले को ‘विद्रोह’ कहना उचित है या नहीं, यह राजनीतिक विवाद है। ट्रम्प के समर्थक राजनीतिक नेता हमले को अभिव्यक्ति की आजादी बताते हैं। लेकिन हथकड़ी-बेड़ी, ऑटोमेटिक राइफलों से लैस, सामने मैदान में सूली तैयार रखने वाले अपनी अभिव्यक्ति की आजादी की नीयत से आए थे, यह बात किसके गले उतरेगी? इसी वजह से महाभियोग के औचित्य पर बहस के दौरान न केवल डेमोक्रेटिक वरन कम से कम दस रिपब्लिकन सदस्यों ने भी हमलावरों का एक ही मकसद माना- हिंसा से सत्ता पर दबाव डालना और दहशत फैलाना- आतंकवादियों का भी यही मकसद रहता है।
अपनी रैलियों में नस्लवादी, अतिवादी, भड़काऊ और डराने-धमकाने वाली बातें कहने का ट्रम्प का इतिहास है। ऐसे लोग उनसे हमेशा शह पाते रहे हैं। वर्जीनिया प्रांत में नस्लीय दंगे फैलाने के दोषियों को उन्होंने ‘देशभक्त’ कहा था। राजधानी में उपद्रव मचाने वालों को भी उन्होंने ‘वेरी स्पेशल’ बताया था। ऐसी तमाम हरकतों के बावजूद ट्रम्प बच निकलते रहे हैं क्योंकि उनकी नीयत भले जो रहे, उनके द्विअर्थी और अप्रासंगिक शब्द अतिवाद की जद में नहीं आ पाते थे। लेकिन सब जानते हैं कि ट्रम्प की मंशा कभी नेक नहीं थी। स्वयं को पीड़ित बता कर उन्होंने समर्थकों को उकसाया कि वे उनके राजनीतिक टर्फ को बचाने के लिए आगे आएं। यह उन्होंने ऐसी चालाकी से किया कि उनका उल्लू भी सध जाए और उन पर छींटे भी न पड़ें। छह जनवरी सुबह की रैली में उन्होंने वही किया- एक घंटे के भाषण में उन्होंने बार-बार ‘फाईट’ कहा और लोगों को कैपिटल बिल्डिंग तक मार्च करने को कहा। समर्थकों ने वही किया, लेकिन ट्रम्प हिंसा की कोई जिम्मेवारी नहीं लेते।
दूसरे महाभियोग के आरोप पत्र में उन पर संसद परिसर पर हमला करने के लिए उग्र भीड़ को ‘उकसाने’ का एकमात्र आरोप है। प्रतिनिधि सभा से पास होने के बाद इसे अब सेनेट में भेजा जाएगा जहां आरोपों पर मुकदमा चलेगा। हैरानी की बात है कि बहस के दौरान करीब सभी रिपब्लिकन सदस्यों ने महाभियोग का इस आधार पर विरोध किया कि रैली में ट्रम्प ने जो कहा उससे हिंसा नहीं भड़की, यानी उन्होंने हिंसा के लिए किसी को उकसाया नहीं।
सच यह है कि आयोजकों ने रैली का नाम ‘सेव अमेरिका’ रखा और इसका मकसद चुनाव नतीजों को चुनौती देना बताया। इसे उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति की आजादी कहा। ट्रम्प ने इसमें बार-बार लोगों से संसद तक मार्च करने को कहा और यह भी कहा कि वे खुद मार्च की अगुआई करेंगे। पर भाषण खत्म कर ट्रम्प दूसरे रास्ते से व्हाईट हाऊस लौट गए और भीड़ संसद की तरफ बढ़ने लगी।
अमेरिकी संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी को महत्वपूर्ण माना गया है, मगर सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर जो व्याख्याएं की हैं उनसे स्पष्ट है कि इस आजादी की भी सीमाएं हैं। हिंसा के खतरे से भरा कोई भी कथन संविधान और कानून के दायरे से बाहर है।
बहरहाल, डोनाल्ड ट्रम्प इतिहास में पहले ऐसे राष्ट्रपति बन चुके हैं जिन्हें एक ही टर्म में दो बार महाभियोग का सामना करना पड़ा। देश में राजनीतिक हवा काफी गर्म है और बॉयडन के शपथ-ग्रहण के दौरान भारी उपद्रव की आशंकाओं के चलते राजधानी में बीस हजार से ज्यादा सैनिक तैनात कर दिए गए हैं। दूसरी तरफ, देश के तीन-चौथाई रिपब्लिकन वोटर अब भी माने बैठे हैं कि ट्रम्प वाकई जीते हैं। (आभार – समय की चर्चा)
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