न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
अरविन्द मोहन
यह हैरानी की बात नहीँ है कि जिस दिन ‘शताब्दी का खास बजट’ कह कर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने वित्त विधेयक प्रस्तुत किया उसी दिन दिल्ली की सीमाओँ पर किसानोँ को रोकने की आठ लेयर वाली व्यवस्था की जा रही थी। बजट मेँ भी इस बार किसी किस्म के गरीब समर्थक, किसान समर्थक, महिला समर्थक और गांव समर्थक दिखावे की जरूरत नहीं दिखाई गई। उसमें सबसे बड़ी रियायत के नाम पर 75 पार के बुजुर्गोँ को आयकर रिटर्न से छूट है।
इसमें भी शर्त यह है कि उनकी कोई आमदनी नहीँ हो और उन्होंने सरकार के तय किए बैंकोँ मेँ ही अपने खाते रखे हों। लेकिन अगर आपको सरकार से रिफंड चाहिए तो बगैर रिटर्न कैसे होगा। बजट की दूसरी खास बात सोना-चांदी सस्ता होना है। मगर यह उनके लिए है जिनमें पचास हजार रुपए प्रति दस ग्राम सोना खरीदने की क्षमता बची हो।
बजट में लगभग अस्सी लाख गाड़ियोँ को स्क्रैप मेँ बेचने, पूरे बीमा क्षेत्र को विदेशी कम्पनियोँ के हवाले करने, बैंकोँ के सारे एनपीए और डूबे कर्ज को एक प्राधिकार के हवाले करके उनको सारी जवाबदेही से मुक्त करने, सैनिक स्कूल तक को विदेशी निवेशकोँ के हवाले करने, सरकारी परिसम्पत्तियोँ को बेच कर मोटी रकम जुटाने, शेयर बाजार की कमाई को हर बन्धन से मुक्त करने और चुनाव वाले राज्योँ के लिए भाजपा को लाभ देने वाली घोषणाएं करने मेँ कोई झिझक नहीँ दिखी। यही नहीं, पन्द्रहवेँ वित्त आयोग की अभी-अभी आई सिफारिशोँ को दरकिनार करते हुए केन्द्रीय राजस्व मेँ राज्योँ के हिस्से का लगभग ग्यारह फीसदी पैसा नहीं देना और पेट्रोलियम पदार्थोँ पर उत्पाद शुल्क घटा कर उसी रकम को उपकर के रूप मेँ अपनी जेब मेँ डालने की मनमानी भी दिखी।
सबसे खास बात यह कि जिस कोरोना काल मेँ अर्थव्यवस्था सबसे खस्ता हालत में रही और आमदनी व खर्च मेँ नौ फीसदी का फासला रह गया, जिसे अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्री पंद्रह फीसदी तक मानते हैं, उसमेँ भी सड़क समेत कथित संरचना क्षेत्र मेँ भारी निवेश की योजनाओँ की घोषणा के साथ रिकॉर्ड 6.8 फीसदी राजकोषीय घाटे का अनुमान वित्तमंत्री ने बता दिया। मगर कोई कुछ भी कहे, शेयर बाजार कुलांचें मार रहा है। लेकिन शेयर बाजार तो कोरोना काल की पस्ती के बीच भी उछलता रहा था जिसके चलते सेंसेक्स पचास हजार के आंकड़े को पहले ही छू चुका था।
फिर भी जब पिछले दो महीनोँ मेँ बाजार का पूंजीकरण करीब दस लाख करोड़ बढ़ने और अर्थव्यवस्था की रफ्तार से इस कमाई का मेल न खाने के आधार पर शेयर बाजार की कमाई पर कर लगाने, नाजायज पैसे को बाजार मेँ लाने का मुख्य स्रोत पी-नोट्स पर किसी तरह का अंकुश लगाने और किसान आन्दोलन के दबाव मेँ उनके हक मेँ या कोरोना के चलते आम लोगोँ को राहत देने के दबाव की बात से बाजार कुछ सहमा हुआ था। लेकिन जैसे ही वित्तमंत्री ने बिना कारपोरेट क्षेत्र के पक्ष मेँ फैसलोँ की झड़ी लगाई, पी-नोट्स पर जुबान भी न खोली, नए कर लगाने की बात तो अलग, डिविडेंड पर कर लगाने की व्यवस्था मेँ भी ढील देने, कैपिटल गेन मेँ लाभ देने जैसी घोषणाएं करनी शुरू कीं तो बाजार उछलने लगा। उसका उछलना अभी तक जारी है क्योंकि बजट के प्रावधानोँ का मतलब समझने के साथ पूंजी वाली जमात का उत्साह भी बढता जा रहा है।
शायद इससे पहले किसी सरकार ने गरीबोँ के प्रति बेपरवाही और अमीरोँ तथा कारपोरेट जगत से दोस्ती की ऐसी साफगोई नहीँ दिखाई थी जैसी इस बजट मेँ दिखी है। मध्यवर्ग और गरीबोँ के लिए एक भी लाभ की योजना घोषित नहीँ हुई। सबसे डरावना यह फैसला है कि स्कूली शिक्षा का बजट पांच हजार करोड़ घटा दिया गया और पिछले साल विदेशी विश्वविद्यालयोँ को आने की इजाजत देने के बाद इस बार सैनिक स्कूल, आदिवासी और पहाड़ी क्षेत्र के स्कूलोँ को निजी भागीदारी मेँ सौंपने का फैसला हो गया।
अगर इस बजट मेँ कोई उल्लेखनीय बात है तो वह है स्वास्थ्य का बजट दोगुने से भी ज्यादा किया जाना। यह अलग बात है कि गौर से देखने पर पता लगेगा कि इसका भी बड़ा हिस्सा पानी की आपूर्ति, स्वच्छता मिशन भाग-दो और कोरोना के टीकाकरण का है। बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं और अस्पतालोँ पर निवेश दिखावटी ही है। अगर देश भर मेँ टीकाकरण के खर्च के अनुमान और बजट के भारी प्रवधान को देखेँ तो साफ हो जाता है कि देश भर के लोगोँ को मुफ्त टीका नहीँ मिलने जा रहा।
इस बजट में मध्यवर्ग जैसे आयकर में छूट की प्रतीक्षा करता रह गया, उसी तरह बेचारे बेरोजगार लोग राहत की खबर का इंतजार करते रह गए। अगर काम का बोझ बढ़ने और वेतन कटौती वाले हिसाब को भूल भी जाएं तो करीब डेढ़ करोड़ लोग कोरोना और लॉकडाउन के चलते बेरोजगार हुए हैँ। मुश्किल यह है कि वापस रोजगार पाने या नया काम करने के मामले मेँ पुरुष और महिलाओँ के बीच तीन गुने का फासला है। ऐसा ही अंतर शहरी और ग्रामीण रोजगार के मामले मेँ भी है।
पर जो मामला समझ से परे है वह किसानोँ और खेती की उपेक्षा का है, जो आन्दोलित भी हैँ और जिन्होँने कोरोना काल मेँ देश को सहारा दिया है। आर्थिक विकास की दर अभी तक जब भी ऋणात्मक होती थी तो खेती खराब होने या सूखे के चलते हुआ करती थी। यह पहला मौका है जब खेतिहर लोग सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदे जाने के लिए मारामारी कर रहे हैँ। सरकार चालू वित्त वर्ष मेँ भी खेती के लिए तय रकम खर्च नहीँ कर सकी है और अगली बार के लिए उसने बजट कम कर दिया है। इस बजट के जरिये तीन काम हुए लगते हैँ। वोट दिलाऊ खर्च, कारपोरेट वर्ग के लिए भारी लाभ की योजनाएं और अपनी सहूलियत और शान का खर्च। और पता नहीं क्यों, बजट भाषण मेँ इस बार रक्षा क्षेत्र का वैसा जिक्र नहीं था जैसा पहले हुआ करता था। उसे भी लोग तलाशते ही रह गए। (आभार – समय की चर्चा )
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