न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
महेंद्र पाण्डेय
जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि की चर्चा फ्रांस की राजधानी पेरिस के बिना पूरी नहीं होती। इसकी वजह यह है कि जलवायु परिवर्तन को काबू में करने का अंतर्राष्ट्रीय समझौता पेरिस समझौते के नाम से ही जाना जाता है। इसी पेरिस की एक अदालत ने अपनी यानी फ्रांस की सरकार को जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने में असफल करार दिया है और कहा है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने की सभी सरकारी घोषणाएं अधूरी हैंI
असल में फ्रांस के चार गैर-सरकारी संगठनों ने इस सिलसिले में एक याचिका दायर की थी। इसी याचिका पर यह फैसला आया है जिसे ऐतिहासिक बताया जा रहा है। ग्रीनपीस फ्रांस के निदेशक जीन फ़्रन्कोइस जुलियार्ड के अनुसार यह फैसला वैज्ञानिकों के जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के आकलन की पुष्टि करता है और यह जनता की आशाओं की प्रतिध्वनि है। यह फैसला फ्रांस के लिए ही ऐतिहासिक नहीं, बल्कि इसे आधार बना कर दुनिया भर के लोग अपनी सरकारों को जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में जिम्मेदार बना सकते हैं।
फ्रांस की ‘नोत्रे अफ्फैरे अ तोउस’ नामक संस्था की प्रमुख सेसिलिया रिनौदो का मानना है कि यह फैसला जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित दुनिया भर में आवाज बुलंद करने वाले कार्यकर्ताओं और प्रदर्शनकारियों की जीत है। इस फैसले में पर्यावरण के विनाश के आर्थिक पहलू का भी जिक्र किया गया है। इसमें कहा गया है कि ऐसे हर विनाश से समाज को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। यदि इस तरह का नुकसान निजी क्षेत्र की कम्पनियां करती हैं तो उन्हें आर्थिक हर्जाना चुकाना पड़ता हैI इसी तर्ज पर स्वाभाविक है कि यदि पर्यावरण को नुकसान सरकार की लापरवाही के कारण पहुंचता है तो सरकार को भी समाज को आर्थिक हर्जाना अदा करना पड़ेगा। अदालत ने मुक़दमा दायर करने वाले गैर-सरकारी संगठनों से कहा है कि वे जलवायु परिवर्तन को रोकने में सरकार की लापरवाही से होने वाले नुकसान का विस्तृत आकलन करें और उसे अदालत के समक्ष पेश करें।
इन गैर-सरकारी संगठनों ने दिसम्बर 2018 में इस सन्दर्भ में एक अपील फ्रांस के प्रधानमंत्री को भेजी थी। अपील पर लगभग 23 लाख लोगों ने हस्ताक्षर किए थे। लेकिन प्रधानमंत्री ने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की। तब मार्च 2019 में इसी अपील को याचिका के तौर पर अदालत में दाखिल किया गया। इसमें कहा गया था कि फ्रांस सरकार ने वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों में 40 प्रतिशत कटौती की प्रतिबद्धता जाहिर की थी और वर्ष 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन की का लक्ष्य हासिल करने की घोषणा की थी। मगर मौजूदा सरकारी रवैये से यह लक्ष्य असंभव दीख रहा है। फ्रांस को उपरोक्त लक्ष्य हासिल करने के लिए हर वर्ष कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 1.5 प्रतिशत की कटौती करनी है, लेकिन पिछले साल कोविड-19 के लॉकडाउन के बावजूद इस उत्सर्जन में महज 0.7 प्रतिशत की कमी आई है।
‘द क्रायोस्फेयर’ नामक जर्नल के ताजा अंक में प्रकाशित यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीड्स के वैज्ञानिकों के एक शोधपत्र के अनुसार वर्ष 1994 से 2017 के बीच तापमान वृद्धि के कारण दुनिया के कुल बर्फ के आवरण में 28 ट्रिलियन टन की कमी आंकी गई है। पृथ्वी के दोनों ध्रुवों और ऊंचे पहाड़ों की चोटियों पर बर्फ का आवरण है जो तापमान वृद्धि के कारण लगातार नष्ट होता जा रहा है। इस 28 ट्रिलियन टन बर्फ के पिघलने में दो-तिहाई योगदान वायुमंडल के गर्म होने के कारण है, जबकि बाकी एक-तिहाई योगदान महासागरों का बढ़ता तापमान है। इस शोधपत्र के अनुसार पृथ्वी पर बर्फ के आवरण के पिघलने की दर में 1994 से 2017 के बीच 57 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 1994 में यह दर 0.8 ट्रिलियन टन प्रतिवर्ष थी, जो 2017 में 1.2 ट्रिलियन टन तक पहुँच गई।
वर्ष 1994 से 2017 के बीच बर्फ पिघलने से महासागरों की सतह में 35 मिलीमीटर की वृद्धि हो चुकी है। पृथ्वी की बर्फ में से तापमान वृद्धि के कारण सबसे अधिक नुक्सान दोनों ध्रुवों के पास महासागरों में तैरते हिम-शैलों को हुआ है। इसके बाद पहाड़ों की ऊंची चोटियों पर जमे ग्लेशियर का नंबर है। अनुमान है कि इस अवधि के दौरान दुनिया से लगभग छह ट्रिलियन टन ग्लेशियर समाप्त हो चुके हैं, जो दुनिया के कुल बर्फ के आवरण के नुकसान का लगभग एक-चौथाई है।
जाहिर है, दुनिया के वैज्ञानिक लगातार अपने अध्ययनों से सरकारों को जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि से होने वाले नुकसानों के प्रति आगाह कर रहे हैं, पर सरकारें इसे नियंत्रित करने को लेकर कहीं से भी तत्पर नहीं नजर आ रहीं। फ्रांस की अदालत ने तो इसके लिए सीधे सरकार को दोषी ठहरा दिया, पर क्या अन्य देशों में ऐसा हो पायेगा? क्या भारत में ऐसा संभव है? (आभार – समय की चर्चा )
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