न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
सुशील कुमार सिंह
‘गवर्नमेंट कम्युनिकेशन’ को लेकर कथित जीओएम की रिपोर्ट की खबर पिछले दिसंबर में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में सबसे पहले छपी थी और आई-गई हो चुकी थी। इस पर हंगामा तब मचा जब ‘कैरवान’ में हरतोष सिंह बल ने खबर के साथ पूरी रिपोर्ट ही उजागर कर दी। इसका कारण आप खबर लिखने और उसके प्रस्तुतिकरण के अंदाज को भी मान सकते हैं और यह भी कह सकते हैं कि पहली खबर में यह नहीं था कि रिपोर्ट में कथित तौर पर किस पत्रकार को क्या सुझाव देते बताया गया है। हंगामा तो इसी से मचा है।
इस रिपोर्ट में डिजिटल मीडिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 26 प्रतिशत रखने और डिजिटल न्यूज और ओटीटी यानी ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म ज्यादा जिम्मेदार बनें, इसकी व्यवस्था करने का सुझाव दिया गया है। ये दोनों फैसले सरकार घोषित भी कर चुकी है। इससे कोई भी मान सकता है कि रिपोर्ट एक हद तक तो सही है। मगर न तो पत्रकार रिपोर्ट में अपने कहे को और मीटिंग के उद्देश्य को स्वीकार रहे हैं और न इसे तैयार करने वाले कथित जीओएम के सदस्य मंत्री ही कुछ मानने को तैयार हैं। मंत्रियों के साथ हुई दो-तीन मीटिंगों में जिन पत्रकारों के शामिल होने की बात कही गई है, वे तरह-तरह की दलीलें दे रहे हैं। मसलन, उन्हें तो लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सेना के साथ भारतीय सेना की झड़प को लेकर एक विशेष ब्रीफिंग के नाम पर बुलाया गया था। वे यह भी कह रहे हैं कि रिपोर्ट में उनके सुझाव के तौर पर जो कुछ लिखा गया है, वैसा कुछ उन्होंने कहा ही नहीं।
वास्तव में, कोई यह दावा नहीं कर सकता कि ये सभी पत्रकार उन कथित मीटिंगों में गए भी थे या नहीं, और गए थे तो किस उद्देश्य से। किसी या किन्हीं मंत्रियों के साथ पत्रकारों का मिलना-जुलना तो एक बेहद आम और मामूली बात है। अब यह किसी खास मकसद से बुलाई गई मीटिंग थी और इसमें इन पत्रकारों ने क्या कहा, यह तो ये पत्रकार खुद ही जानते होंगे। इनमें से किसी ने सचमुच वहां क्या कहा, इसे कोई और प्रमाणित नहीं कर सकता। वैसे भी इस रिपोर्ट पर किसी के दस्तखत नहीं हैं। यह भी संभव है कि कथित मीटिंग में बुलाए गए सब पत्रकारों को सचमुच इसका उद्देश्य न बताया गया हो। फिर भी, अगर ऐसी कोई मीटिंगें हुई थीं तो इस पूरे घटनाक्रम के दो पहलू ऐसे हैं जिनसे हैरत होती है।
पहला तो यह कि जब ज्यादातर, शायद नब्बे प्रतिशत से भी ज्यादा, मीडिया पर नरेंद्र मोदी सरकार का जलवा छाया हुआ है और अधिकतर मसलों पर सरकार जैसा चाहती है वैसा नैरेटिव बनवाने में कामयाब होती रही है, ऐसी स्थिति में भी सरकार को ऐसा कोई जीओएम या मंत्रि-समूह बनाने की जरूरत पड़ी। यानी अगर इस जीओएम और इसकी रिपोर्ट की बात सही है तो इसका मतलब है कि बचे-खुचे अनचाहे स्वरों और उनके असर को लेकर सरकार चिंतित है और उन्हें भी निष्प्रभावी बनाने के तरीके खोज रही है। दूसरी बात जो हैरान करती है, वह यह कि इन मीटिंगों में इतने कम पत्रकार क्यों बुलाए गए। सरकार के बुलावे का तो इन दिनों अनेक सम्मानित पत्रकारों को भी इंतजार रहता है। बुलाए जाते तो वे भागे-भागे पहुंचते। और अगर यह चीनी सेना के साथ झड़प की बाबत कोई खास ब्रीफिंग भर थी, तब भी इसमें अंग्रेजी और हिंदी के सभी बड़े अखबारों और न्यूज़ चैनलों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं था। क्या गलवान घाटी की घटना पर किसी खास ब्रीफिंग का मकसद इन्हीं थोड़े से पत्रकारों को बुला कर पूरा हो जाने वाला था?
रिपोर्ट में तीन मीटिंगों का जिक्र है, जो पिछले जून और जुलाई में हुईं। लेकिन हो सकता है कि कथित जीओएम के सदस्य मंत्रियों ने इन मीटिंगों के अलावा भी अलग-अलग किन्हीं और पत्रकारों से बात की हो या पहले ही कर रखी हो। ये मीटिंगें जिस चरित्र की बताई गई हैं, उसके हिसाब से इनमें वे पत्रकार शामिल क्यों नहीं थे जो घोषित तौर पर सरकार के पक्ष में खड़े हुए हैं? संपादक स्तर के कई बड़े नाम जो परिस्थितियों वश, विचारधारा वश या किसी लालच वश, सरकार को यों भी दिन-रात सलाहें देते रहते हैं, वे भी नहीं बुलाए गए। नैरेटिव बदलने या नया नैरेटिव पैदा करने के तरीके उनसे बेहतर कौन बता सकता था। इसी से लगता है कि इन मंत्रियों ने उनसे अलग से बात की होगी या फिर सोचा होगा कि इनका क्या है, इनसे तो बात कर ही लेंगे। यह भी हो सकता है कि उन्होंने कुछ पत्रकारों से उनके सुझाव लिखित में मांग लिए हों और उन्हें बुलाए जाने की जरूरत ही न रही हो। कौन जानता है कि सच क्या है? वैसे भी कोरोना काल में किसी को बुलाने की बजाय उसकी राय लिखित में मांग लेना बेहतर था। एक और विचित्र बात यह कि कथित जीओएम के सदस्य मंत्री भी इस तरह की किसी रिपोर्ट और मीटिंग की बातों को फर्जी बता रहे हैं। क्यों? इनमें से ज्यादातर मंत्री लंबे समय से निरंतर दिल्ली के पत्रकारों के सम्पर्क में रहते आए हैं। उन्हें कुछ भी स्वीकारने में क्या दिक्कत है?
असल में, मंत्रियों और नेताओं से पत्रकारों का मिलना-जुलना रोजमर्रा का काम है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद प्रेस कान्फ्रेंस नहीं करते, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे पत्रकारों से कतई नहीं मिलते। वे कई पत्रकारों को अलग-अलग इंटरव्यू दे चुके हैं। कई बार वे पत्रकारों के जमावड़े के बीच भी पहुंचे हैं और पत्रकार उनके साथ सेल्फी लेते देखे गए हैं। अगर कभी प्रधानमंत्री ने प्रेस कान्फ्रेंस करने का फैसला कर लिया तो यकीन मानिये, सवाल पूछने की गरज से जाने वालों के मुकाबले उन पत्रकारों की भीड़ ज्यादा होगी जिन्हें खबर से ज्यादा सेल्फियां महत्वपूर्ण लगती हैं।
प्रधानमंत्री की स्थिति थोड़ी अलग है। उन्हें छोड़ दें तो उनके अनेक मंत्रियों, उनकी पार्टी के नेताओं और सांसदों का काम तो पत्रकारों के बगैर चल ही नहीं सकता। लोकसभा के हर सांसद के लिए अपने क्षेत्र और प्रदेश के पत्रकारों से मिलना जरूरी है। इसी तरह, मंत्री बनने पर उनके लिए अपने मंत्रालय को कवर करने वाले पत्रकारों से मिलना परम आवश्यक हो जाता है। ऐसा केवल भाजपा में नहीं, हर पार्टी में है और ऐसा होने में कोई बुराई भी नहीं है।
बुराई तो उनके मिलने के मकसद और नीयत में है। जब मीडिया संगठन नौकरी देते समय रिपोर्टरों से पूछेंगे कि कौन-कौन नेता आपका फोन उठाते हैं, तब पत्रकारों के लिए भी नेताओं से इतनी नजदीकी बनाना जरूरी हो जाता है कि वे उनका नाम देख फोन उठा लें। लेकिन यह नजदीकी केवल पत्रकारिता करते हुए भी संभव है। जो पत्रकार कोई मंत्रालय या पार्टियां कवर करते हैं, उनके लिए तो दिन की शुरूआत ही अपनी पहचान के नेताओं को फोन करने से होती है। कई मामलों में, धीरे-धीरे उनके बीच ऐसी दोस्ती हो जाती है कि पत्रकार और नेता का रिश्ता धुंधलाने लगता है। साथ खाना और साथ पीना इस रिश्ते को कहीं का कहीं ले जाता है। लेकिन पत्रकार तो वही है जो इस दोस्ती के बावजूद पत्रकार रहे। कुछ पत्रकार इसे निभा ले जाते है तो कुछ इस दोस्ती में खेत रहते हैं। इसके उदाहरण आज चारों तरफ मौजूद हैं। जो लोग भी पत्रकारिता में हैं, वे सब अपने गिर्द बिखरे इन उदाहरणों को चीन्ह सकते हैं।
कहा जाता है कि चोरी न केवल अपराध है, भ्रष्टाचार है, बल्कि एक तरह का शोषण भी है। किसी के कहने पर किसी खबर के स्वरूप से छेड़छाड़ करना सूचनाओं अथवा जानकारी की चोरी से कम नहीं है, बल्कि यह किसी भी तरह के भ्रष्टाचार से ज्यादा घातक परिणामों का वाला कृत्य है। लगभग चार दशक पहले, अपने करियर के शुरूआती दिनों में हमें सिखाया गया था कि खबर वह है जो छुपाई जा रही है। जो बताई जा रही है वह तो प्रचार है। और प्रचार की चौंध के बीच से खबर निकालना ही हमारा काम है। यह काम अब बुरी तरह पिछड़ गया है। कई मीडिया संगठनों में किन्हीं भी कारणों से इसकी जरूरत को ही मार दिया गया है, फिर भी वे संगठन और उनके पत्रकार सम्माननीय कहलाते हैं।
राजनीतिक पार्टियों को कवर करते-करते कुछ पत्रकार उनमें इस कदर खप जाते हैं कि वे नए पत्रकारों को पार्टी की ‘खबरों की तहें’ समझाने लगते हैं। पार्टी के किसी नेता या किसी गुट के पक्ष में माहौल बनाने का काम करने लगते हैं। दूसरी तरफ, लगभग सभी पार्टियों में विभिन्न मुद्दों पर पत्रकारों की राय लेने का इंतजाम भी रहता है। यह कोई आज की बात नहीं है। नेता लोग खबर देते रहे हैं तो लेते भी रहे हैं। पत्रकार उन्हें बखुशी खबरें बताते और उन पर अपनी राय भी जताते रहे हैं। इसमें कुछ नया नहीं है। बस इसका रिकॉर्ड पर आना नया है। मानो स्टेज पर परदा हट गया हो जबकि नाटक के पात्र अभी तैयार नहीं थे। पत्रकारों और मंत्रियों की तरफ से अगर इस मामले में अपनी भागीदारी से इन्कार किया जा रहा है तो इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। इस तमाम प्रकरण में एक यही तो उम्मीद की किरण है, कि वे भी समझते हैं कि कुछ ऐसा है जो नहीं होना चाहिए।
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