न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
सुशील कुमार सिंह
किसी के पास इसका हिसाब नहीं है कि पिछले दो-तीन हफ्तों में, किन्हीं भी मजबूरियों में, कहां-कहां कितने डॉक्टरों ने कहा कि ‘अब तो हमसे भी नहीं देखा जाता’।अखबारों और न्यूज़ एजेंसियों के कई फोटोग्राफ़र दिल्ली और एनसीआर के श्मशानों की तस्वीरें खींचने के बाद कई दिनों तक ठीक से सो नहीं पाए, ठीक से खा नहीं पाए।
मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन्होंने पूरा जीवन ड्यूटी की ड्य़ूटी में बिता दिया। मतलब ड्यूटी तो ड्यूटी है, सो ड्यूटी पर तो जाना ही है। लेकिन आज उनके बड़े हो चुके बच्चे उनसे कहते हैं कि पापा, आप मत जाओ, ड्यूटी गई भाड़ में, जो होगा देखा जाएगा।
दूसरी तरफ, ऐसा भी हुआ कि जब परिवार में कई लोगों को वायरस ने जकड़ लिया तो उन्हीं बच्चों में से किसी पर यह तय करने की जिम्मेदारी आ पड़ी कि पापा, मम्मी, भाई और बहन में से किसे बचाना है और किसे जाने देना है।
जीवन में इससे ज्यादा मुश्किल फैसला शायद और कोई नहीं हो सकता। हमने देखा कि जिन शवों के साथ चार लोग भी नहीं थे, वहां इंसानियत के नाते कंधा देने वाले कई लोग आगे आ गए। मगर कुछ मामलों में ऐसा भी हुआ कि कंधा देने का पुण्य कमाने के लिए लोगों ने चार-पांच हजार रुपए तक वसूले।
हमने यह भी देखा कि कुछ लोग एंबुलेंस या कोई और वाहन नहीं मिलने पर या पैसे नहीं होने के कारण अपनी पत्नी या पिता का शव रिक्शा या ऑटो या पीठ पर ही लाद कर चल दिए तो कुछ ने चादर में लिपटे अपने पिता या मां का शव, अस्पताल या श्मशान के पास, सड़क किनारे, यों ही छोड़ दिया और चले गए। मालूम नहीं इन लोगों ने अपने घर लौट कर क्या बहाना बनाया होगा। क्या कहानी सुनाई होगी।
ऐसा तो तब भी नहीं हुआ था जब पिछले साल अचानक लगाए गए लॉकडाउन के समय देश के अनेक शहरों से करोड़ों प्रवासी मजदूर और उनके परिवार सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर पहुंचने के लिए हाईवेज़ पर पैदल ही निकल पड़े थे। तब अफरातफरी में कोई बच्चा अपने घरवालों से बिछड़ गया हो, यह हो सकता है। लेकिन उन दिनों ऐसी कोई खबर नहीं सुनी गई कि कोई जानबूझ कर अपने किसी परिजन को ऐसे ही बेसहारा छोड़ कर चला गया।
लेकिन इन दिनों कई जगह अस्पतालों में लोग शव छोड़ कर चले गए या वहां से ले आए तो बाहर आकर उनका इरादा बदल गया और फुटपाथ पर रखा शव अकेला रह गया। कुछ लोग शव को श्मशान तक ले गए और फिर वहां बाहर छोड़ कर चले गए। क्या इसका कारण आर्थिक रहा होगा? या इसके पीछे खुद के संक्रमित होने का डर होगा?
यह भी हो सकता है कि शव को इस तरह छोड़ जाने वालों के घर में कोई और बचा ही न हो जिन्हें जाकर उन्हें कोई जवाब देना हो। लेकिन क्या उनके पड़ोसी भी कुछ नहीं पूछेंगे? और जिनके घरों में अन्य लोग भी हैं, क्या वे शव को ऐसे ही छोड़ आने वालों के किसी भी बहाने या कहानी पर यकीन कर लेंगे? सब कुछ मानो दरक रहा है।
छोटी हो या बड़ी, कोई भी नैतिकता इस विपदा का बोझ नहीं सह पा रही। सरकार की हो, समाज की हो या रिश्तों की, तमाम व्यवस्थाएं टूट कर बिखर रही हैं। जहां तक निजी नैतिकताओं का सवाल है तो इस दौर में हम उन्हें बड़े पैमाने पर ढेर होते देख रहे हैं।
लगता है कि जैसे हम कामू के ‘प्लेग’ से कहीं आगे निकल आए हैं।
पिछले साल जब कोरोना वायरस की शुरूआत हुई थी तब इस उपन्यास का बहुत जिक्र हुआ था। असल में, एल्बर्ट कैमस अथवा आल्बेर कामू के इस उपन्यास को विश्व साहित्य में किसी महामारी की परिस्थितियों का चित्रण करने वाली बेहतरीन रचना माना जाता है। अल्जीरिया में जन्मे इस फ्रेंच लेखक को 1957 में नोबेल पुरस्कार मिला था। तब वे केवल चवालीस साल के थे और इसके मुश्किल से तीन साल बाद एक कार एक्सीडेंट में उनकी मृत्यु हो गई।
कामू ने पत्रकारिता भी की थी और थिएटर में भी काम किया था। उनका व्यक्तित्व बेहद आकर्षक था और वे नहीं चाहते थे कि उन्हें काफ़्का की तरह अस्तित्ववादी लेखक माना जाए। ‘प्लेग’ एक लगभग दो लाख की आबादी वाले शहर की कहानी है। महामारी का पता चलते ही शहर के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं ताकि वह इस शहर के अलावा और कहीं न फैल सके।
जो लोग किसी काम से बाहर से इस शहर में आए थे, वे वहीं फंस जाते हैं। इसी तरह जो लोग शहर से कहीं बाहर गए हुए थे, वे लौट नहीं सकते। चूहों का मरना पहले तो लोग अनदेखा करते हैं, मगर फिर चूहे बेतहाशा मरने लगते हैं और उसके बाद शुरू होता है आदमियों के मरने का सिलसिला।
शहर में बीमारी और मौत के तरह-तरह के दृश्य हैं और एक डॉक्टर जान हथेली पर रख कर लोगों की मदद कर रहा है। उपन्यास में एक जगह कहा गया है कि ‘हर किसी को पता है कि महामारियों के पास दुनिया में लौट आने का रास्ता होता है, फिर भी न जाने क्यों हम उस चीज पर यकीन ही नहीं कर पाते जो नीले आसमान से हमारे सिरों पर आ गिरती है।’
असल में हम महामारियों को बिसराए रहते हैं। हम उन्हें इतना नापसंद करते हैं कि उन्हें न केवल भूल जाना चाहते हैं बल्कि ऐसी कोई तैयारी भी नहीं करते कि वे दोबारा आ जाएं तो हम उनका सामना कर सकें। पिछले साल कोरोना की पहली लहर के पूरी तरह खत्म होने से पहले ही हम उसकी समाप्ति का जश्न मनाने लगे। सरकार अपनी पीठ ठोकने लगी। उसे भुलाने के प्रयास में एक तरह से हमने मान लिया कि बस कोरोना गया और अब वह नहीं आएगा।
दुनिया भर के वैज्ञानिक क्या कह रहे थे, उस पर गौर करने का हमारी सरकार के पास समय ही नहीं था। हम बाजारों में भीड़ लगाने लगे तो उसे रोकने की बजाय सरकार ने उस भीड़ को राजनैतिक रैलियों और कुंभ में बुला लिया। सरकारें और लोग, सब निश्चिंत हो गए। विपदा का शायद सबसे बड़ा गुण यह है कि वह प्रतीक्षा करती है और इस ताक में रहती है कि आप कब निश्चिंत हों।
वर्ष 1989 में नोबेल पुरस्कार पाने वाले स्पेन के लेखक कामीलो खोसे सेला के उपन्यास ‘पास्कुआल दुआर्ते का परिवार’ का मुख्य पात्र एक जगह कहता है कि ‘जब भी विपदा आई, उसने मुझे सिगरेट पीते हुए पकड़ा।‘ यानी उसने मुझे तब पकड़ा जब मैं निश्चिंत होकर कश लगा रहा था। मगर हम केवल निश्चिंत ही नहीं थे, हम तो जैसे सोए हुए थे।
चारों तरफ से राजनैतिक रैलियों और कुंभ के आयोजन के विरोध में शोर उठ रहा था, फिर भी सरकार की नींद नहीं टूटी। और जब अदालतों के सख्ती बरतने पर वह जागी, तब तक स्थिति नियंत्रण के बाहर जा चुकी थी जिससे पार पाने की कोई तैयारी की ही नहीं गई थी। हालात का अंदाज़ा इससे लगाइए कि ऑक्सीजन की सप्लाई गड़बड़ाने से किसी अस्पताल में मरीजों की मौत की पहली घटना को एक हफ्ते से ज्यादा समय बीत चुका है और अभी भी ऑक्सीजन की सप्लाई दुरुस्त नहीं हुई है।
दिल्ली का जो नया कोटा निर्धारित किया गया उतनी ऑक्सीजन किसी भी दिन नहीं पहुंची है। दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार और अदालतें, सब जुटे हुए हैं, फिर भी नहीं पहुंची। मतलब यह कि लोग मर रहे हैं और अभी तक केवल बातें ही हो रही हैं।
दुनिया भर में ऐसे कई संगठन हैं जो हर देश से मृत्युदंड को समाप्त कराने का अभियान चला रहे हैं। उनका ब्रम्ह वाक्य होता है कि आपने चाहे जो अपराध किया हो, उससे आपका जीवन अर्थहीन नहीं हो जाता, इसलिए उसे बचाना ज़रूरी है।
सोच कर देखिए, ऑक्सीजन की कमी या दवाओं की कमी से या अस्पताल में बेड नहीं मिल पाने के कारण हमने जितने लोगों को मर जाने दिया, उनका तो कोई अपराध भी नहीं था।
आज स्थिति यह है कि ऐसा कोई व्यक्ति ढूंढ़े नहीं मिलेगा जिसके परिवार, दोस्तों, रिश्तेदारों या पहचान के लोगों में से किसी को भी कोरोना नहीं हुआ हो।
इसीलिए मैंने कहा कि हमारे हालात ने ‘प्लेग’ को काफी पीछे छोड़ दिया है। इन दिनों हमारी एक अरब से ऊपर की आबादी जिस विरोधाभासी मनोभावों की दुरूह सुरंग से गुजर रही है, वह अनगिनत कहानियों, उपन्यासों और फिल्मों को जन्म दे सकती है।
अगर आप लिखने-पढ़ने के धंधे में हैं और इन दिनों आपसे कुछ लिखने को कहा जाए तो आप कोई और विषय सोच ही नहीं सकते। आप जो भी सोचेंगे उसका इस महामारी से कुछ न कुछ संबंध जरूर होगा।
आज क्या जीवन है, कि ज्यादा से ज्यादा घर पर रहिए। बाहर से किसी को भीतर मत आने दीजिए, न किसी को बाहर जाने दीजिए।
ऊपर से, हर दिन हमें अलग-अलग क्षेत्र के दो-चार जानेमाने लोगों के जाने की खबरें मिल रही हैं। तीन दिन पहले ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ वाले विनोद शर्मा ने ट्विटर पर लिखा कि ‘एक-दूसरे से अच्छे से दुआ सलाम कर लो। ना जाने कौन कब दिवंगत हो जाए।’ हो सकता है कि विनोद शर्मा ने यह केवल मज़ाक में लिखा हो।
लेकिन यह एक सच्चाई है कि बहुत से लोग इन दिनों उन लोगों को फोन करने लगे हैं जिनसे उनकी महीनों या शायद सालों से बात नहीं हुई थी।
ऐसे फोन मुझे भी आए हैं। ……. संभव है आपको भी आए हों।
(आभार – समय की चर्चा )
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