न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
महेंद्र पाण्डेय
स्वच्छ पर्यावरण का मौलिक अधिकार हमें संविधान देता है और संयुक्त राष्ट्र भी लगातार इसकी वकालत करता रहा है। हमारे प्रधानमंत्री पर्यावरण सुरक्षा को भारत की पांच हजार साल पुरानी परंपरा बताते नहीं थकते। मगर हकीकत यह है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए लड़ने वाले लोगों की ह्त्या के मामले में भारत दुनिया के बाईस प्रमुख देशों की सूची में दसवें स्थान पर है और एशिया में फिलीपींस के बाद दूसरा सबसे खतरनाक देश है।
वर्ष 2012 से ब्रिटेन के एक गैर-सरकारी संगठन, ग्लोबल विटनेस, नामक संस्था ने हर सला पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध आवाज उठाने वालों की हत्या के सभी प्रकाशित आंकड़ों को एकत्र कर एक सालाना रिपोर्ट तैयार करने का काम शुरू किया था। हाल में प्रकाशित इसकी ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हर सप्ताह कम से कम चार पर्यावरण संरक्षकों की ह्त्या कर दी जाती है। पिछले साल यानी 2020 में दुनिया में कुल 227 पर्यावरण संरक्षकों अथवा कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। यह संख्या किसी भी अन्य वर्ष की तुलना में सर्वाधिक है। ऐसी सबसे अधिक 65 हत्याएं कोलंबिया में हुईं। उसके बाद मेक्सिको में 30, फिलिपिन्स में 29, ब्राज़ील में 20, होंडुरास में 17, कांगो में 15, ग्वाटेमाला में 15, निकारागुआ में 12, पेरू में छह और भारत में चार हत्याएं की गईं। कोलंबिया लगातार दूसरे साल पहले स्थान पर रहा है।
भारत का स्थान 22 देशों की इस सूची में भले ही चार हत्याओं के कारण दसवां हो, पर पर्यावरण संरक्षण का काम भारत से अधिक खतरनाक शायद ही किसी और देश में हो। यहाँ के रेत और बालू माफिया हर साल कितने ही लोगों पर हमले करते हैं, जिनमें पुलिसवाले और सरकारी अधिकारी भी मारे जाते हैं। इनमें अधिकतर मामलों को पर्यावरण संरक्षण का नहीं बल्कि आपसी रंजिश या सड़क हादसे का मामला बना दिया जाता है। अधिकतर खनन कार्य जनजातियों या आदिवासी क्षेत्रों में किये जाते हैं। स्थानीय समुदाय जब इसका विरोध करता है, तब उस पर भी हमले होते हैं। आदिवासी और पिछड़े समुदाय के अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाले पर्यावरण और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का भी यही हश्र होता है। बड़े उद्योगों से होने वाले प्रदूषण को उजागर करने वाले भी किसी न किसी बहाने हिंसा के सिकार बनते हैं।
ग्लोबल विटनेस की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में ऐसी कुल 227 हत्याओं का आंकड़ा दरअसल वास्तविक आंकड़ा नहीं है। हत्याएं इससे कहीं अधिक होतीं हैं, पर आंकड़े उपलब्ध नहीं कराये जाते। हत्या ना भी हो, तब भी ऐसे लोगों को बिना किसी जुर्म के जेल में डाल देना या फिर देशद्रोही करार देना सामान्य है। ऐसी कुल हत्याओं में एक-तिहाई से अधिक प्राकृतिक संसाधनों की लूट यानी जंगलों की अवैध कटाई, किसी इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट, खनन, बाँध, हाइड्रोकार्बन प्रोजेक्ट और कृषि आधारित उद्योगों आदि का विरोध करने पर की जातीं हैं। इनमें 80 प्रतिशत से अधिक लैटिन अमेरिका और एशिया, विशेष तौर पर फिलीपींस में की गईं। दुनिया भर में पर्यावरण कार्यकर्ताओं की जितनी हत्याएं होतीं हैं उनमें आधे से अधिक केवल तीन देशों कोलंबिया, मेक्सिको और फिलीपींस में की जाती हैं। पिछले वर्ष अकेले कोलंबिया में 65 पर्यावरण कार्यकर्ताओं की ह्त्या की गई, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए जान गंवाने वालों में सबसे अधिक वनवासी और जानजातियों के लोग रहते हैं। पिछले वर्ष कुल हत्याओं में से 40 प्रतिशत से अधिक ऐसे लोग थे। ब्राज़ील में तो अब कई जनजातियाँ विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। दुनिया भर में कुल 20 ऐसी हत्याएं थीं जिनमें जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करने वाले सरकारी कर्मचारी मारे गए। इस समस्या से सबसे कम प्रभावित यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देश हैं।
यह रिपोर्ट कहती है कि जब जलवायु परिवर्तन विकराल स्वरूप ले रहा है और पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, तब पर्यावरण संरक्षण अधिक महत्वपूर्ण हो गया है, लेकिन सरकारें और पूंजीपति उसके महत्व को लगातार अनदेखा कर रहे हैं। बड़ी संख्या में जनजातियों के लोग मारे जा रहे हैं या जेलों में डाले जा रहे हैं या धमकाए जा रहे हैं, पर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार जनजातियाँ हमेशा से ही जंगलों को संरक्षित करती रहीं हैं। जंगल बचाने में लगीं जनजातियाँ जलवायु परिवर्तन रोकने और तापमान वृद्धि कम करने में सबसे प्रमुख भूमिका निभा रही हैं।
पिछले साल जितने लोगों की ह्त्या पर्यावरण संरक्षण के नाम पर की गई, उनमें 15 प्रतिशत से अधिक महिलायें हैं। महिलायें हमेशा से ही प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करती रही हैं। इस मामले में महिलाओं को बलात्कार और हिंसक हमलों का सामना भी करना पड़ता है। उन्हें चरित्र हनन कर उन्हें चुप कराने की भी कोशिश की जाती है। ग्लोबल विटनेस की राचेल कॉक्स के अनुसार वैश्विक स्तर पर भ्रष्टाचार, पूंजीवाद के प्रसार और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट ने मानवाधिकारों का लगातार हनन किया है और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने वालों को अपना दुश्मन समझा है। यही कारण है कि सरकारें और पूंजीपति ऐसी हत्याओं को बढ़ावा देते हैं। महामारी के इस दौर में भी यह सिलसिला थमा नहीं है, जबकि तमाम अध्ययन इस महामारी का कारण भी प्राकृतिक विनाश को मानते हैं।
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