न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क

सुशील कुमार सिंह

कृष्णा की उम्र केवल सात साल है। उसकी मां कटक के एक अस्पताल में नर्स थी और पिता भुवनेश्वर में ईस्ट कोस्ट रेलवेज़ के मुख्यालय में काम करता था।

अप्रैल के पहले हफ्ते तक कृष्णा के घर में सब ठीक चल रहा था और वह अपनी ऑनलाइन पढ़ाई में व्यस्त थी। मगर अचानक उसकी गर्भवती मां कोरोना की चपेट में आ गई।

एक लड़के को जन्म देने के सात दिन बाद मां चल बसी। पिता कमलेश दोनों बच्चों यानी नवजात बेटे और बेटी कृष्णा को लेकर अपने गांव आ गया। मगर कुछ ही दिनों में पिता को भी कोरोना ने जकड़ लिया और भुवनेश्वर के एक अस्पताल में उसकी भी मौत हो गई।

अब दोनों बच्चे अपने चाचा और चाची के पास हैं।

14 जून की रात ओडिशा के कई स्थानीय टीवी चैनलों पर लोगों ने इस सात साल की बच्ची को झूला झुला कर अपने डेढ़ महीने के भाई को सुलाने की कोशिश करते देखा।

दिहाड़ी पर काम करने वाले उसके चाचा देबाशीष के लिए अपने परिवार के अलावा दो अतिरिक्त बच्चों को पालना बहुत मुश्किल है। वह चाहता था कि जिला प्रशासन या सरकार उसकी मदद करे।

यह ओडिशा के बालासोर जिले के भोगाराई ब्लॉक में पड़ने वाले नीमतपुर गांव के एक मामूली से घर की कहानी है। कोई नहीं कह सकता कि कोरोना ने देश के कितने घरों की जिंदगियों को इस तरह उलट-पलट कर दिया है।

हो सकता है कि अब जिला प्रशासन या सरकार या किसी एनजीओ से कृष्णा और उसके नवजात भाई तक मदद पहुंच गई हो, लेकिन मीडिया में आने तक इस मामले की न तो स्थानीय प्रशासन को कोई जानकारी थी और न केंद्र या राज्य सरकार को। जबकि केंद्र सरकार और लगभग सभी राज्यों की सरकारों ने कोरोना महामारी में बेसहारा और अनाथ हो गए बच्चों की सहायता के लिए बढ़-चढ़ कर योजनाएं घोषित की हैं।

यह बात अलग है कि ओडिशा की नवीन पटनायक सरकार ने ऐसे बच्चों के लिए पेंशन और मुफ्त शिक्षा की घोषणा कृष्णा की खबर आने के बाद की।

इसी तरह उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में नागला मंदिर के पास एक घर में छह लोगों का एक परिवार पखवाड़े भर से भूख से तड़पता पाया गया।

इस परिवार में पांच बच्चे और उनकी मां है। मां गुड्डी एक ताला फैक्टरी में काम करती थी।

लॉकडाउन में उसका काम छूट गया। कुछ दिन गुजारा होता रहा। पैसे जब नहीं बचे तो वह आसपड़ोस से मांग कर काम चलाने लगी।

मगर न तो पड़ोसी हमेशा मदद कर सकते हैं और न आप हमेशा मांगते रह सकते हैं।

एक दिन मां को शर्म आने लगी तो उसने मांगना बंद कर दिया। और उसके बाद यह महिला और उसके पांच बच्चे दो हफ्ते तक केवल पानी पीकर जीवित रहे। किसी तरह पड़ोसियों को पता लगा तो उनकी जान बची।

ध्यान रहे कि केंद्र सरकार की गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने वाली योजना पिछले साल लॉकडाउन के समय से चल रही है। कुछ ही दिन पहले इसे अगले नवंबर यानी दीवाली तक जारी रखने की घोषणा की गई है।

सरकार का दावा है कि वह इस योजना में देश के 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को हर महीने प्रति व्यक्ति पांच किलो गेहूं या चावल मुफ्त देती है।

इसके साथ ही एक किलो चने की दाल भी मुफ्त मिलती है। असल में यह अनाज देश के 23 करोड़ राशनकार्ड धारकों को दिया जा रहा है।

सवाल है कि क्या अलीगढ़ की एक ताला फैक्ट्री में काम करने वाली एक विधवा और उसके पांच बच्चे उन गरीबों में नहीं गिने जाएंगे जिन्हें अनाज मुफ्त दिया जाता है?

क्या इस परिवार के पास राशन कार्ड नहीं था?

कई राज्यों में तो बिना राशनकार्ड के भी मुफ्त अनाज देने का वादा किया गया था। क्या उत्तर प्रदेश उनमें नहीं था?

असल में ये दोनों घटनाएं हमारी सरकारी योजनाओं की सीमाएं बताती हैं।

हाल ही में केंद्र सरकार ने पीएम केयर्स फंड से अनाथ बच्चों की मदद के लिए एक योजना घोषित की।

महामारी में जिन बच्चों ने अपने माता-पिता गंवा दिए हैं, उन्हें इस योजना के तहत मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य बीमा यानी आयुष्मान भारत योजना का लाभ मिलेगा।

उन्हें अठारह वर्ष की उम्र तक मासिक भत्ता ​और तेईस वर्ष की उम्र पर पीएम केयर्स फंड से दस लाख रुपए दिए जाएंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के दो साल पूरे होने की पूर्वसंध्या पर खुद इस योजना की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि बच्चे देश का भविष्य हैं और देश उनकी मदद व संरक्षण के लिए सब कुछ करेगा।

इसी तरह उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली और राजस्थान आदि की सरकारों ने भी ऐसे बच्चों के लिए अपनी योजनाएं घोषित कीं।

शायद ही कोई राज्य होगा जिसने इस मामले में कोई घोषणा नहीं की।

यानी कोरोना के कारण अनाथ हो गए बच्चों के लिए केंद्र और राज्य सरकारें, सभी सन्नद्ध दिखाई दीं। अगर ऐसे किसी बच्चे को केंद्रीय योजना के दायरे में नहीं लाया जा सका तो इसकी पहली जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकारों की होगी।

केंद्र इस तरह की योजनाओं को लागू करने के लिए राज्यों के तंत्र और उसकी सूचनाओं पर निर्भर रहता है। सीधे उसके पास ऐसी कोई मशीनरी नहीं है कि अनाथ या बेसहारा बच्चों की पहचान करे।

यानी वह राज्यों से ही कोरोना के कारण अनाथ हुए बच्चों की जानकारी मांगेगा।

लेकिन उस हालत में सवाल उठेगा कि क्या ऐसे बच्चों को राज्य और केंद्र दोनों की योजनाओं का लाभ मिलेगा? या फिर राज्य अपनी योजना के लिए अलग बच्चे तलाशेंगे और केंद्रीय़ योजना के लिए अलग?

यानी मुद्दा यह है कि इन योजनाओं के लाभार्थियों को खोजा कैसे जाएगा।

दूसरी तरफ, बेंगलुरु की अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी का कहना है कि कोरोना वायरस के प्रकोप ने वर्ष 2020 के दौरान 23 करोड़ भारतीयों को गरीबी में धकेल दिया था जबकि कोरोना की दूसरी लहर ने हालात और गंभीर कर दिए हैं।

यूनिवर्सिटी के मुताबिक मार्च 2020 में लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन ने करीब दस करोड़ लोगों का रोजगार छीन लिया।

इनमें जो महिलाएं थीं उनमें करीब 47 फीसदी को साल खत्म होने तक वापस रोजगार नहीं मिला था।

ऐसा कहने वाली यह अकेली रिपोर्ट नहीं है कि भारत में कोरोना के कारण करोड़ों लोग गरीबी की गर्त में चले गए।

लेकिन अगर ये रिपोर्टें सही हैं तो उनके आंकड़ों का असर सरकारी आंकड़ों पर क्यों नहीं दिख रहा?

हम पिछले साल भी सुनते थे कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना में 80 करोड़ से कुछ ऊपर लोगों को मुफ्त अनाज मिलता है और आज एक साल बाद भी इस योजना के लाभार्थियों की संख्या लगभग इतनी ही बताई जाती है।

अगर वास्तव में कोरोना और लॉकडाउन की वजह से देश में करोड़ों गरीब बढ़ गए हैं तो मुफ्त अनाज पाने वाले लोगों की गिनती भी तो बढ़नी चाहिए थी।

लेकिन ऐसा तो नहीं हुआ।

अपने देश में लोगों की माली हालत की दसियों तहें हैं। हम जिसे मिडिल क्लास या मध्य वर्ग कहते हैं, उसकी सरकारी परिभाषा चाहे जो हो, पर वास्तव में बीस हजार रुपए महीने कमाने वाला भी खुद को मिडिल क्लास कहता है और सवा लाख रुपए वेतन वाला भी।

इसी तरह जिन्हें बीपीएल यानी गरीबी रेखा के नीचे गिना जाता है, उनसे ऊपर की कई तहें ऐसी हैं जो जरा से आर्थिक झटके में गरीबी रेखा से नीचे पहुंच सकती हैं।

इन रिपोर्टों का तात्पर्य इन्हीं करोडों लोगों से है जिन्हें कोरोना और लॉकडाउन ने गरीब बना दिया। फिर भी मुफ्त अनाज वाली योजना के लाभार्थियों की संख्या नहीं बढ़ी।

इसके दो ही कारण हो सकते हैं। या तो वे अभागे लोग इस योजना का लाभ लेने के लिए आगे नहीं आए या फिर इसकी प्रक्रिया और लाभार्थी बनने की शर्तें ऐसी थीं कि वे उन्हें पूरी नहीं कर सके। केंद्र व राज्य सरकारों को इस पर सोचना चाहिए।

लोग राशनकार्ड बनवाने के लिए सरकार के पास पहुंचें, इसके साथ ही क्या यह व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि सरकारें भी स्थानीय प्रशासन के जरिये इस योजना के पात्र लोगों का पता लगाएं। इस योजना का मकसद तो तभी पूरा होगा।

अनाथ बच्चों वाली योजनाओं की भी यही स्थिति है। ऐसे बच्चों के अभिभावक मदद मांगने सरकार के पास खुद आएंगे। लेकिन हो सकता है कि कोई अभिभावक बच्चे के माता-पिता की छोड़ी किसी छोटी-मोटी संपत्ति के लालच में उसे इन योजनाओं तक न पहुंचने दे।

फिर, बच्चों से भीख मंगवाने या उनसे मजदूरी कराने वाले लोगों की देश में भरमार है। वे भी इस योजना में रोड़ा बन सकते हैं। इसलिए अनाथ बच्चों को लेकर कोई सरकार तक पहुंचे, इसके साथ ही सरकार को भी उनका पता लगाने का इंतजाम करना चाहिए। नहीं तो कोरोना से अनाथ हुए बच्चों की वास्तविक संख्या का कभी पता नहीं चलेगा।

इस महीने की शुरूआत में नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स ने सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एलएन राव और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ को बताया कि 29 मई तक, राज्यों के दिए आंकड़ों के मुताबिक, पूरे देश में 9346 बच्चे या तो अनाथ हो गए हैं या उन्होंने माता-पिता में से किसी एक को खो दिया है।

कितने लोग होंगे जिन्हें इस आंकड़े पर विश्वास होगा?

यह आंकड़ा पिछली 29 मई तक का बताया गया है। उस दिन तक देश में कोरोना से 3 लाख 22 हजार 512 मौतें हो चुकी थीं।

इतनी मौतों के बावजूद अनाथ हुए बच्चों की संख्या केवल 9346 थी, जबकि इनमें ऐसे बच्चे भी शामिल थे जिनके मां या बाप में से किसी एक की ही मौत हुई है।

इस मामले में दूसरा पेंच यह है कि हम कोरोना से हुई कुल मौतों की संख्या से भी जूझ रहे हैं। ऐसे कई दावे सामने आ चुके हैं कि भारत में कोरोना से हुई मौतों की वास्तविक संख्या कहीं ज्यादा, बल्कि कई गुना ज्यादा है।

सरकार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ और ‘इकॉनमिस्ट’ के दावों को मानने को तैयार नहीं है। चुनावी सर्वे करने वाली एजेंसियों के अनुमानों को भी सरकार ने ठुकरा दिया।

ये एजेंसियां फोन पर लोगों से पूछ रही थीं कि क्या आपके रिश्तेदारों, मित्रों या जान-पहचान वालों में किसी की कोरोना से मौत हुई है और उनके जवाब से वे अपने अनुमान के प्रतिशत तय कर रही थीं। सरकार कहती है कि यह कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं है। मगर सरकार ने यह कभी नहीं बताया कि गंगा में बहती हुई और नदी किनारे, जहां तक नज़र जाए वहां तक, रेत में दबाई गई लाशों और श्मशानों पर लंबी लाइनों में लगे शवों को गिनने का खुद उसका वैज्ञानिक तरीका क्या है।

इस बीच कई राज्यों में मौतों के ऑडिट के बाद कोरोना से मरने वालों की संख्या बढ़ गई है।

इसी तरह सीआरएस य़ानी सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों की खबरों ने कोरोना से हुई मौतों की संख्या पर नए संदेह खड़े कर दिए हैं। जहां भाजपा विपक्ष में है उन राज्यों की सरकारों पर वह खुद मौतों को कम दिखाने का आरोप लगाती है।

उसके प्रवक्ता संबित पात्रा ने दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार पर आरोप लगाया कि उसने इस साल अप्रैल और मई में केवल 9916 मौतें दिखाईं, जबकि यहां के तीनों नगर निगमों ने इसी अवधि में 34750 मृत्यु प्रमाणपत्र जारी किए।

लेकिन अगर भाजपा दिल्ली में मौतों की वास्तविक संख्या कई गुना ज्यादा मानती है तो उससे पूरे देश में हुई मौतों की संख्या भी तो बढ़ जाएगी, जिसे वह स्वीकारना नहीं चाहती। तो जब कोरोना के मृतकों की संख्या पर ही विवाद है तो हम कोरोना से अनाथ हुए बच्चों की सही गिनती कैसे कर सकते हैं?

(आभार – समय की चर्चा )