बॉस्टन, अमेरिका से सुधांशु मिश्र

करीब 244 साल पहले अमेरिका की स्थापना के दौर में भी उदारवादी और अनुदारवादी विचारधाराओं के बीच जर्बदस्त खींचतान थी। लेकिन उसी खींचतान से निकल कर दुनिया का पहला संविधान अस्तित्व में आया जिसे राजनीति विज्ञानी एक प्रगतिशील कदम बताते नहीं अघाते। सन् 1787 में संविधान लागू होने के बाद से अमेरिकी नागरिक हर चार साल पर राष्ट्रपति पद के लिए वोट डालने के आदी हैं। हर बार सत्ता हस्तांतरण शालीनता और संविधान की भावना के अनुरूप होता रहा है, लेकिन इस बार कुछ संदेह का माहौल है। लोग इसे लेकर अनिश्चित हैं कि उन्हें वोट डालने को मिलेगा या नहीं? वोटों की गिनती ठीक से हो पाएगी या नहीं? नतीजे समय पर आएंगे या नहीं? और हारने पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प गद्दी छोड़ेंगे या नहीं?

  शुरू से ही डेमोक्रेटिक पार्टी अमेरिकी जनमानस के उदारवादी रुझान का और रिपब्लिकन पार्टी परंपरावादी, काफी हद तक अनुदार और कट्टरपंथी धड़े का प्रतिनिधित्व करती रही है। डेमोक्रेटिक पार्टी की घोषित मान्यता है कि राज्य का दायित्व है कि समाज में गैर-बराबरी खत्म करे, सबको समान अवसर सुनिश्चित करे और सबके नागरिक अधिकारों की रक्षा करे। रिपब्लिकन पार्टी इन बातों से मोटे तौर पर तो सहमत है, पर इन्हें सुनिश्चित करने के तरीके को लेकर असहमत है। उसका कहना है कि व्यक्ति के जीवन में राजकीय हस्तक्षेप कम से कमतर होना चाहिए क्योंकि अपनी समस्याएं खुद सुलझाने से जीवन में खिलावट आएगी और आदमी का आत्मविश्वास भी मजबूत होगा।

  राजकीय भूमिका सीमित रखने की सोच से ही निकलती है मुक्त अर्थतंत्र की सोच जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजी संपत्ति की सुरक्षा, राजनीतिक स्वायत्तता, मांग के अनुसार उत्पादन, जबानी या लिखित अनुबंधों की गारंटी, हर व्यक्ति को अपने लिए मुनाफा कमाने का अवसर सम्मिलित हैं। इन अधिकांश मुद्दों पर दोनों विचारधाराएं एकमत कही जा सकती हैं। मतभेद राज्य यानी सत्ता की भूमिका को लेकर है।

  मसलन मृत्युदंड के मुद्दे पर डेमोक्रेटिक पार्टी का मानना है कि यह खत्म होना चाहिए क्योंकि यह अमानवीय और क्रूर है। इससे अपराध नियंत्रण तो दूर, बेगुनाह के मारे जाने का खतरा है। लेकिन रिपब्लिकन कहते हैं कि प्राणदंड जरूरी है क्योंकि हत्या जैसे जघन्य अपराधों के लिए इससे उपयुक्त सज़ा नहीं हो सकती। वे इसे क्रूर भी नहीं मानते।

  इसी तरह डेमोक्रेट कहते हैं कि अर्थोपार्जन और जीवन यापन के लिए बाजार की व्यवस्था जरूरी है, लेकिन बाजार के सुचारु संचालन के लिए राजकीय नियंत्रण और निगरानी भी जरूरी है, वरना व्यापारी निरंकुश हो जाएंगे और बड़े व्यापारी छोटे व्यापारियों को रास्ते से हटा कर एकाधिकार कायम कर लेंगे। व्यापारी केवल अपना मुनाफा देखेगा, इसलिए सरकारी निगरानी से ही सार्वजनिक हितों को  व्यापारी के व्यक्तिगत हितों पर वरीयता मिल सकेगी। मगर रिपब्लिकन मानते हैं कि स्वार्थ-साधन यानी अपने भले-बुरे की खुद सोचने से सभी पर एक प्रकार का अंकुश रहेगा जिससे न केवल ईमानदारी और आर्थिक समृद्धि बढ़ेगी, सामाजिक संबंध भी बेहतर बनेंगे। अजनबी लोग जब खरीद-फरोख्त के लिए जुटते हैं तो वे कपट, मारकाट, छीना-झपटी, गुंडागर्दी नहीं, बल्कि ईमानदारी, विश्वसनीयता के कारण ही अपना माल बेच पाते हैं। उसके हिसाब से इसमें सरकारी नियंत्रण की कोई जगह नहीं। पूंजीवाद और उन्मुक्त अर्थतंत्र से ही लोगों का जीवन-स्तर ऊंचा उठेगा और रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे।  

  एक ज्वलंत मुद्दा पर्यावरण का है। डेमोक्रेटिक पार्टी कहती है कि बेहिसाब, बेतरतीब और अनियंत्रित अर्थतंत्र से पृथ्वी पर तापमान बढ़ रहा है। कारखानों के कचरे से नदियां, समुद्र और पहाड़ प्रदूषित हो गए हैं, इसलिए कुछ मानवीय गतिविधियों पर नियंत्रण जरूरी है। पार्टी मानती है कि अमेरिका क्योंकि स्वयं सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाता रहा है, इसलिए इस दिशा में उसे ही पहल करनी चाहिए। दुनिया का पच्चीस प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन अकेले अमेरिका करता है, इसलिए अमेरिका को कानून बना कर इसे रोकना चाहिए, भले ही इससे आर्थिक विकास पर थोड़ा असर पड़े।    दूसरी तरफ रिपब्लिकन पार्टी को साफ हवा, साफ पानी और हरी-भरी धरती तो पसंद है, पर उसे लगता है कि सख्त पर्यावरण कानूनों और नीतियों से रोजगार घटेगा और अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी। जहां तक कार्बन उत्सर्जन से तापमान बढ़ने की बात है, इसका कोई आधार नहीं है। धरती के तापमान में घट-बढ़ प्राकृतिक है जो हमेशा होती रही है। यह पार्टी दावा करती है कि अभी तक विज्ञान यह साबित नहीं कर पाया है कि जलवायु परिवर्तन मनुष्य के कारण हो रहा है।

  लोग अपने पास घातक हथियार रख सकते हैं या नहीं, यह भी अमेरिकी राष्ट्रपति के मौजूदा चुनाव में एक बड़ा मुद्दा है। डेमोक्रेटिक पार्टी मानती है कि संविधान के दूसरे संशोधन में यह नहीं कहा गया है कि लोग घातक हथियार रखने को स्वतंत्र होंगे। बंदूक से बेवजह खूनखराबा बढ़ता है और हथियार रखने से अपराधों पर नियंत्रण रहेगा, यह सोचना बिल्कुल गलत है। मगर रिपब्लिकन मानते हैं कि हथियार आत्मरक्षा के लिए हैं। दूसरे संशोधन से साफ है कि नागरिकों के आत्मरक्षा के अधिकार को स्वीकारा गया है और अपराध पर नियंत्रण के लिए हथियार जरूरी हैं।

  पिछले राष्ट्रपति बराक ओबामा के समय से सार्वजनिक स्वास्थ्य  अमेरिका का एक बड़ा मुद्दा है। डेमोक्रेटिक पार्टी के हिसाब से राज्य का यह कर्तव्य है कि नागरिकों को सस्ती चिकित्सा सेवा व्यापक तौर पर उपलब्ध कराई जाए। इसे निजी हाथों में बेलगाम नहीं छोड़ा जाए। उनके मुताबिक स्वास्थ्य व्यवस्था में राजकीय निगरानी और नियंत्रण नहीं होने से कंपनियों की मनमानी बहुत बढ़ गई है जिससे सस्ती चिकित्सा के नागरिकों के अधिकार का हनन होता है। दूसरी ओर रिपब्लिकन मानते हैं कि फ्री हेल्थकेयर और कुछ नहीं, बल्कि चोर दरवाजे से अमेरिका को सोशलिज़्म की तरफ ले जाना ही है। सरकार के हाथ डालने से स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर गिरता जाएगा। यह व्यवस्था आमदनी पर आधारित होगी इसलिए सम्पन्न लोगों से टैक्स के जरिए पैसा उगाहा जाएगा। ऐसे लोग तो प्राइवेट सेक्टर से बेहतर सुविधा खरीद लेंगे, पर साधनहीन लोग उसी लचर सरकारी तंत्र में फंसे रहने को बाध्य रहेंगे। सरकार सिर्फ इतना कर सकती है कि निजी कंपनियों से स्वास्थ्य बीमा खरीदने के लिए लोगों को क्रेडिट या अनुदान दे। यह लोगों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने साधन बढ़ाएं ताकि वे अच्छी से अच्छी स्वास्थ्य सुविधा खरीद सकें।

  डेमोक्रेट यह भी मानते हैं कि अमेरिका को सभी देशों के लिए वीजा का कोटा बढ़ाना चाहिए ताकि लोग जोखिम उठा के मेक्सिको के खतरनाक रास्ते से अमेरिका न आएं। इसी तरह देश के भीतर रह रहे सभी गैरकानूनी आप्रवासियों को क्षमादान दिया जाना चाहिए। यह अमेरिका का बड़प्पन होगा कि उन्हें यहां पढ़ने-लिखने की सुविधा दी जाए। मगर रिपब्लिकन विचार यह है कि वीजा कोटा बढ़ाने की जरूरत नहीं है। अभी जितना है, इसे भी कम किया जाना चाहिए। गैरकानूनी तरीकों से अमेरिका आना हर हाल में रोकना होगा और जो आ चुके हैं उनकी शिनाख्त कर उन्हें वापस भेजा जाए। ऐसे लोगों को अदालत में पेश करने की व्यवस्था स्थायी तौर पर खत्म करनी होगी। बाहर से सस्ते कर्मचारी और मजदूर नहीं आएंगे तो अमेरिकनों के लिए रोजगार बढ़ेगा।

  डेमोक्रेट कहते हैं कि शासन को धर्म और पंथ-निरपेक्ष होना चाहिए। सरकारी कामों में धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल तुरंत बंद होना चाहिए। सरकारी पैसे से चलने वाले स्कूलों में धार्मिक प्रार्थनाएं नहीं होनी चाहिए। मगर रिपब्लिकनों के मुताबिक पंथ या धर्म-निरपेक्षता जैसी कोई बात संविधान में नहीं कही गई है। पहले संविधान संशोधन यानी ‘बिल ऑफ राइट्स’ में सिर्फ यह कहा गया है कि धर्म-कर्म और अपने विश्वासों के कारण की गई किसी धार्मिक क्रिया को रोकने के लिए कांग्रेस यानी संसद कोई कानून नहीं बना सकती। इसका अर्थ केवल यह है कि सरकार ब्रिटेन की तर्ज पर धर्म-विशेष को राजकीय धर्म नहीं बना सकती। स्कूलों और सरकारी इमारतों में धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल पर कोई रोक नहीं है।

  डेमोक्रेट कहते हैं कि सुचारु कामकाज के लिए सरकार को टैक्स बढ़ाने का अधिकार है। नहीं तो कल्याणकारी कार्य नहीं हो सकेंगे। इसलिए टैक्स में कटौती नहीं की जानी चाहिए। दूसरी तरफ रिपब्लिकन सोचते हैं कि टैक्स जितना कम, उतना बेहतर। इससे सरकार का आकार और दायरा दोनों कम होंगे। यह पार्टी मानती है कि टैक्स उन लोगों के साथ अन्याय है जिन्होंने अपनी मेहनत से पैसा कमाया है।  

  समाज कल्याण, सोशल सिक्योरिटी व अन्य राजकीय सहायता को लेकर डेमोक्रेट मानते हैं कि जरूरत के समय सरकार को नागरिकों की पूरी मदद सुनिश्चित की जानी चाहिए। रिपब्लिकन पार्टी कहती है कि सामाजिक न्याय और बराबरी सुनिश्चित करने के लिए वेलफेयर अनिवार्य है, लेकिन पीढ़ियों तक सरकारी खैरात पर रहना आदत है, जरूरत नहीं। इसलिए सरकारी मदद की एक समय-सीमा होगी, वह हमेशा नहीं मिलती रहेगी और लोगों को अपने पैरों पर खड़े होना होगा।

  आतंकवाद से युद्ध भी इस चुनाव का एक बड़ा मुद्दा है। डेमोक्रेट मानते हैं कि दुनिया अमेरिकी विदेश नीति को लेकर गुस्से से भरी है। वे इस नीति की समीक्षा चाहते हैं। उनके मुताबिक राजनीतिक फायदे के लिए सरकार ने आतंकवाद के खतरे को बढ़ाचढ़ा कर बताया है। मगर रिपब्लिकन कहते हैं कि जेहादी जिस दुनिया में रहते हैं वहां से वे पश्चिमी विश्व को कभी चैन से नहीं बैठने देंगे। उनके साथ सह-अस्तित्व संभव ही नहीं है। उन्हें जब मौका मिलता है, अमेरिकी हितों और मित्र देशों को निशाना बनाते रहते हैं। इसलिए मुस्लिम कट्टरपंथियों और जेहादियों को चुन-चुन कर सजा दी जानी चाहिए।  

  अमेरिका में मतदान का इतिहास पलटें तो तमाम बहस मूल रूप से इन्हीं मुद्दों के गिर्द रही है। अनुदारवादी और उदारवादी सोच में अंतर साफ देखा जा सकता है। आज भी इसमें फर्क नहीं आया है। सच यह है कि अमेरिका में आजादी के बाद से हर पीढ़ी को कट्टरपन से लड़ना पड़ा है, चाहे वह धार्मिक कट्टरता हो, सामाजिक हो या आर्थिक कट्टरपन हो। एक समय तो ऐसा भी था, जब जिस ईसाई धर्म की बुनियाद पर देश की नींव पड़ी थी, तत्कालीन विचारकों ने उसी की अनेक मान्यताओं के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। (आभार – समय की चर्चा)