बॉस्टन, अमेरिका से सुधांशु मिश्र
मतदान में अब कवेल दो ही दिन बचे हैं, पर अमेरिका के सभी पचास राज्यों और राजधानी वाशिंगटन-डीसी में चुनाव-पूर्व मतदान का रिकॉर्ड बन चुका है। 2016 के चुनाव में सिर्फ 42 प्रतिशत वोटरों ने पहले मतदान किया था, लेकिन इस बार यह अभी से 59 प्रतिशत के ऊपर पहुंच चुका है। इन वोटों में 60 प्रतिशत उन राज्यों में डाले गए हैं जिन्हें चुनावी पंडित ‘अनिश्चित’ कोटि में रख रहे हैं, यानी कहा नहीं जा सकता कि वहां के मतदाताओं का रुझान किस तरफ है।
फिर भी चिंताएं रिपब्लिकन खेमे में ज्यादा दिखती हैं। अनेक बड़े रिपब्लिकन नेता भी सार्वजनिक रूप से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से पल्ला झाड़ चुके हैं। इनमें ताजा नाम माईकेल स्टील का है जो हाल तक रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्ष थे। वोटरों की तमाम रायशुमारियों के नतीजे शुरू से डेमोक्रेटिक पार्टी के पक्ष में झुके हुए हैं। और तो और, अक्टूबर खत्म होने को है और अभी तक, जिसे अमेरिकी जनता ‘अक्टूबर-सरप्राईज़’ के रूप में जानती-पहचानती रही है, सामने नहीं आया है। बराक ओबामा के आठ सालों को छोड़ कर पिछले दर्जनों चुनावों में यह अक्टूबर-सरप्राईज अपनी करामात दिखाता आया है। 2016 में मतदान के दस दिन पहले एफबीआई के तत्कालीन प्रमुख जेम्स कोमी ने हिलेरी क्लिंटन के कथित 30 हजार गोपनीय ई-मेल की घोषणा कर सनसनी फैला दी थी और चुनाव की दिशा तय कर दी थी। कुछ दिन बाद ही हालांकि एफबीआई ने कहा था कि उन ई-मेल में कुछ नहीं मिला, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और हिलेरी से पैंतीस लाख कम वोट मिलने के बावजूद ट्रम्प जीत गए थे। यह चमत्कार अमेरिकी चुनाव प्रक्रिया के निराले ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ के कारण हुआ।
चुनाव की गहमागहमी और आपाधापी के बीच ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने 25 अक्टूबर को एक रिपोर्ट में अमेरिकी मतदाताओं के दो ध्रुवों में बंटे होने पर चिंता व्यक्त की। वैसे, देश के बहुसंख्यक छोटे-बड़े अखबार, टीवी, रेडियो चैनल, यूनियन और व्यापार संगठन जो बॉयडन को इंडोर्स कर चुके हैं। ऐसे में इस रिपोर्ट से पता चलता है कि जीत चाहे जिसकी हो, अमेरिका अवसाद के गर्त में है और अगले कई सालों तक रहने वाला है।
चुनाव के एक सप्ताह पहले प्रकाशित इस रिपोर्ट का लब्बोलुआब यह है कि ये दोनों उम्मीदवार देश के लिए खतरनाक हैं। ट्रम्प ज्यादा, बॉयडन कुछ कम। देश ही नहीं दुनिया के लिए भी। ट्रम्प के जीतने पर पर्यावरण के क्षेत्र में ओबामा की सभी कामयाबियों का बंटाढार तय है जबकि बॉयडन की जीत पर अमेरिका दिवालिया होने वाला है। दोनों तरफ से गलतबयानी का बाजार गर्म है। ट्रम्प तो इसमें हमेशा से माहिर थे। बॉयडन का पक्ष भी यह फैला रहा है कि ट्रम्प की जीत का मतलब होगा कि बीमारी की सूरत में लोग बेमौत मरेंगे क्योंकि ओबामा राज में मिली चिकित्सा सुविधाएं खत्म कर दी जाएंगी। एक-दूसरे के प्रति ऐसा अविश्वास अमेरिकी लोकतंत्र के इतिहास में सर्वथा अप्रत्याशित है और इससे पता चलता है कि देश बेतरह बंटा हुआ है, वह भी घरेलू रीति-नीति को लेकर। वरना चुनावों में विदेशी खतरा मुख्य मुद्दा बनता रहा है- कभी कोल्ड वॉर तो कभी, खास कर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर वाले हमले के बाद चरमपंथ और आतंकवाद।
राजनीतिक हलकों में सोशलिज़्म शब्द इस देश में बड़ी गाली जैसा माना जाता है। लेकिन ट्रम्प और उनकी पार्टी हर रैली में जोर-शोर से कह रहे हैं कि बॉयडन की जीत माने सोशलिज़्म की जीत। उधर बॉयडन और उनकी पार्टी ट्रम्प को अधिनायकवादी और लोकतंत्र के लिए खतरा कह रहे हैं। यानी दोनों पक्ष एक-दूसरे को राजनीतिक विरोधी नहीं बल्कि शैतान बता रहे हैं। यह देश इतना बंटा हुआ कभी नहीं था, गृहयुद्ध के बाद भी नहीं। अब कोई मध्यमार्गी नहीं दिखता। ट्रम्प तो कहते ही थे, पर कई सर्वे ऐसे भी आए हैं जिनमें जार्जिया प्रांत में बॉयडन के 31 प्रतिशत समर्थक कह रहे हैं कि वे ट्रम्प की जीत को नहीं मानेंगे और मुकाबला करने के लिए ‘कुछ भी करेंगे।‘ खबरें यह भी हैं कि दक्षिणी प्रांतों में दोनों दलों के समर्थकों के बीच हथियार खरीदने की होड़ मची है।
इन प्रवृत्तियों पर गहरी चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। सीएनएन, एनबीसी और पब्लिक रेडियो व टीवी पर पिछले कुछ दिनों में अनेक बहसें इसी बारे में थीं। तात्पर्य यह कि गृहयुद्ध की अफवाहें और वोटरों को डराने-धमकाने की कुचालें अब आम लोगों को दहशत में डाल रही हैं। धुर दक्षिणपंथी ‘क्यू-अनान’ जमात ऐसी ही एक विचारधारा है जिसने अब कई राज्यों में पांव फैला लिया है जिस पर केंद्रीय जांच एजंसी एफबीआई ने भी चिंता जताई है। यह जमात मानती है कि इस देश के खिलाफ भीतर ही भीतर बड़ा षड़यंत्र चल रहा है जो अमेरिकी मूल्यों के खिलाफ है और इसमें उदारवादी राजनीतिक जमात के अलावा अश्वेत अमेरिकी, आप्रवासी, लैटिन अमेरिका से गैरकानूनी तौर पर आए लोग, सब शामिल हैं। बॉयडन और ट्रम्प की पहली डिबेट में भी यह मसला उठा था और ट्रम्प ने इस गुट की निंदा करने की बजाय यह कह कर आग में घी डालने का प्रयास किया था कि ‘क्यू अनान, स्टैंड बैक एंड स्टैंड बाई।’ ट्रम्प के इस बयान से भी लोगों में इस गुट को लेकर अविश्वास बढ़ा, इसलिए आश्चर्य नहीं कि बॉयडन समर्थकों ने भी मुकाबले के लिए कमर कस ली हो। इन सब बातों से देश में इस समय घोर राजनीतिक तनाव महसूस होता है।
यह सब अचानक नहीं हुआ। देश की सभी राजनीतिक और लोकतांत्रिक संस्थाएं गंभीर दबावों में हैं। अमेरिकी हमेशा से अपनी इन संस्थाओं पर भरोसा करते आए हैं। सुप्रीम कोर्ट को ही लें। जस्टिस रूथ बेडर गिंसबर्ग की मृत्यु के अगले ही दिन ट्रम्प ने एक धुर कट्टरपंथी रुझान वाली एमी कोनी बैरेट को नामांकित कर दिया। डेमोक्रेट सेनेटरों के बॉयकाट के बावजूद सेनेट ने इस हफ्ते उनके नामांकन को मंजूरी दे दी और उन्हें शपथ भी दिला दी गई। अब सुप्रीम कोर्ट में कट्टरपंथी विचारों वाले जजों का बहुमत है और कोर्ट के सामने सार्वजनिक हित के अनेक महत्वपूर्ण मुकदमे विचारणीय हैं जिनमें व्यापक स्वास्थ्य सुविधा संबंधी ओबामा-केयर, गर्भपात के अधिकार और समलैंगिक जोड़ों के बराबरी के अधिकारों पर पुनर्विचार प्रमुख हैं। सब जानते हैं कि ट्रम्प और उनकी पार्टी इन सभी अधिकारों को खत्म करने के पक्ष में है।
एक पॉपुलिस्ट राष्ट्रपति दोबारा सत्ता पाने को हर तरह के प्रयास कर रहा है, जिसकी मानसिक क्षमताओं पर खुलेआम सवाल उठाए जाते रहे हैं, जिसने कोरोना वायरस से बचने के लिए लोगों को सैनिटाईज़र और ब्लीच पीने तक की सलाह दे डाली, जो टीवी, रेडियो और अखबारों को फ़ेक-न्यूज़ कहता है और जो आप्रवासियों को रेपिस्ट और अपराधी मानता है। ऐसे कई मसले हैं जिन्हें देश के लोगों ने पिछले साढ़े तीन साल में बार-बार देखा, सुना और भुगता है। देश महामारी से त्रस्त है, अर्थव्यवस्था बेतरह सिकुड़ चुकी है और रोजगार चले जाने से करोड़ों घरों में भोजन तक का संकट है। महामारी से निपटने के नाम पर शासन अकर्मण्य हो हाथ पर हाथ धरे बैठा दिख रहा है। अब तक के सभी राष्ट्रपतियों की तुलना में ट्रम्प ने देश को बुरी तरह बांटा है। अभी तक, वही व्यक्ति राष्ट्रपति चुना जा सका है जिसने देशवासियों में नई उमंग भरी, आशा का संचार किया, भविष्य बेहतर होने की उम्मीद जगाई। लेकिन इस बार हालात में अनिश्चितता है।
दो दिन हुए, ट्रम्प ने अपनी एक रैली में फिर कहा कि अगर बॉयडन जीते तो देश में ‘मॉब रूल’ यानी अराजकता फैल जाएगी। ऐसा वे कई बार कह चुके हैं और इसलिए लोग सवाल उठा रहे हैं कि चुनाव हारने पर ट्रम्प क्या करेंगे? उनके समर्थक एक धार्मिक गुट के प्रमुख पैट राबर्टसन ने भी इस हफ्ते युद्ध की धमकी दी थी। ऐसे गुट ट्रम्प को अवतार बताते नहीं अघाते और सोशल मीडिया व यू-ट्यूब पर उनकी भारी फॉलोइंग है। समाजविज्ञानी बार-बार याद दिलाते हैं कि 1968 में निक्सन की धांधलियों के बाद से देश में ऐसा महौल कभी नहीं था।
ऐसे कठिन माहौल में यह चुनाव हो रहा है। इस बार पहली बार वोट देने वाले युवा वोटरों की संख्या करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है। अश्वेत और लातीनी वोटर बड़ी तादाद में वोट डालने वाले हैं या डाल भी चुके हैं। श्वेत अमेरिकी भी पहले वोट डालने वालों में पीछे नहीं हैं। अपने मैसाच्युसेट्स और पड़ोसी न्यू-हैम्पशायर प्रांत के कई छोटे-बड़े शहरों में मैंने हर जगह वोट डालने के लिए टाऊन हॉलों पर लंबी लाईनें देखीं। कुछ तो महामारी के भय से वोटिंग वाले दिन की भीड़भाड़ से बचने के लिए वोट डाल रहे होंगे, पर ज्यादातर ने इस चुनाव का महत्व महसूस किया है। एक ताजा सर्वे से पता चलता है कि 67 प्रतिशत से ज्यादा लोग बॉयडन के समर्थक हैं। मगर ऐसे दावे रिपब्लिकन पार्टी की ओर से भी किए जा रहे हैं।
वोटरों के अति-उत्साह के आधार पर ही यह नहीं कहा जा सकता कि चुनाव निष्पक्ष रहेंगे और सभी को न केवल वोट डालने दिया जाएगा बल्कि उनके वोटों को गिनती में शामिल भी किया जाएगा। जार्जिया, नेब्रास्का, अलाबामा, ल्यूसियाना, मिसिसिपी, डेकोटा जेसे कई राज्यों के रिपब्लिकन गवर्नरों ने इसमें रोड़े अटकाने की हरचंद कोशिश की है जिनके खिलाफ सैकड़ों मुकदमे विभिन्न अदालतों में दायर किए गए हैं। इसके बावजूद जार्जिया प्रांत में अनेक लोगों को दस घंटे तक लाईन में खड़े रहना पड़ा। फिर भी वे अपना वोट डाल कर ही माने। कैलीफोर्निया और कई दूसरे राज्यों में रातोंरात फर्जी वोटर बॉक्स लगा दिए गए थे जिन्हें हो-हल्ला मचने के बाद हटाया गया। बताते हैं कि ये फर्जी बॉक्स रिपब्लिकन पार्टी और ट्रम्प समर्थकों ने लगाए थे ताकि उनमें डाले गए डाक वाले वोटों को गिनती से बाहर किया जा सके। (आभार – समय की चर्चा )
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