न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
सुशील कुमार सिंह
पंजाब विधानसभा के मौजूदा पांच कोणीय चुनाव में आंदोलनकारी किसानों की पार्टी और कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी उस ताकत से लड़ती दिखाई नहीं दीं जिसका वे दावा कर रहे थे। उनसे कहीं ज्यादा दम तो शिरोमणि अकाली दल और कैप्टन की सहयोगी भाजपा ने लगाया है। ये दोनों दल अनुमानों को उलट पुलट भी कर सकते हैं।
मगर इन चुनावों के नतीजे मुख्य रूप से दो पहलुओं पर निर्भर करेंगे। पहला यह कि क्या कांग्रेस को अपनी तमाम अंदरूनी गुटबाजी के बावजूद चरणजीत सिंह चन्नी के दलित होने का उतना लाभ मिलेगा जितना पार्टी ने उन्हें अपना मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करते समय आंका था। और दूसरा, अरविंद केजरीवाल पर लगा खालिस्तानी अलगाववादियों से साठगांठ का आरोप राज्य में चली बदलाव की लहर को किस हद तक कमजोर करेगा।
पंजाब में चुनाव कभी भी जाति और धर्म के नाम पर नहीं लड़े जाते। न वहां हिंदू और सिखों का विभाजन है और न मुसलमानों का। आम तौर पर यहां चुनावों में जट सिखों का प्रभाव काम करता रहा है, इसके बावजूद कि उनका वोट प्रतिशत दलितों से कहीं कम है। इस बार कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्री को देश में अकेले दलित मुख्यमंत्री के तौर पर प्रचारित किया। इसका सीधा मकसद राज्य के 32 प्रतिशत दलित मतदाताओं को आकर्षित करना था।
लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर दलित एकजुट होकर वोट डालें, जैसा कि पहले कभी नहीं हुआ, तो जवाब में दूसरी जातियां भी एकजुट हो सकती थीं। फिर भी इस मामले में कांग्रेस लाभ में रह सकती है क्योंकि जट सिख वोटों के कई दावेदार मैदान में थे। वैसे खुद कांग्रेस के पास जट सिख वोटों पर दावेदारी के लिए नवजोत सिंह सिद्धू सहित कई नेता थे। मगर आम आदमी पार्टी के भगवंत मान, पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और अकाली दल का बादल परिवार भी इसी श्रेणी में आता है। इस बंटवारे को देखते हुए कांग्रेस इस चुनाव में जीत के लिए सबसे ज्यादा चरणजीत सिंह चन्नी पर निर्भर करेगी।
दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी है जिसने कांग्रेस से पहले अपने मुख्यमंत्री के चेहरे का ऐलान किया जिससे उसके पंजाब के स्थानीय नेताओं में अनिश्चितता खत्म हुई। भगवंत मान जो उखड़े उखड़े दिखते थे, एकदम फॉर्म में आ गए। 2017 के चुनाव में आम आदमी पार्टी के लिए पंजाब में जो आकर्षण दिखता था, इस बार उससे ज्यादा नजर आया। ज्यादातर लोग मानते हैं कि पंजाब के इस चुनाव में बदलाव का मुद्दा हर तरफ छाया हुआ था। पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी का जोर केवल मालवा इलाके में सीमित था। मगर इस बार वह माझा और दोआबा में भी उतना ही उजागर था।
मगर अरविंद केजरीवाल के आईएसी यानी इंडिया अगेंस्ट करप्शन और आम आदमी पार्टी के शुरूआती साथियों में से एक कुमार विश्वास ने मतदान से केवल तीन दिन पहले इस पार्टी की धज बिगाड़ दी। कवि कुमार विश्वास किसी समय आम आदमी पार्टी में उसकी राजस्थान इकाई को स्वतंत्र रूप से चलाने के इच्छुक थे, जो कि नहीं हो सका। फिर उनका नाम दिल्ली के पूर्व मंत्री और अब भाजपा नेता कपिल मिश्रा के साथ कथित तौर पर केजरीवाल की सरकार गिराने के उपक्रम में उछला, जिसके बाद उनका पार्टी में बने रहना मुश्किल हो गया। राज्यसभा की सदस्यता नहीं मिलने से वे वैसे भी वहां बस दिन गिन रहे थे। पार्टी से अलग होने के कई साल बाद अब अचानक उन्होंने दावा किया कि अरविंद केजरीवाल की खालिस्तानी अलगाववादियों से साठगांठ थी और उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि वे या तो पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे या स्वतंत्र राष्ट्र खालिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बनेंगे।
आम आदमी पार्टी इस आरोप को निराधार बताती रही, लेकिन इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी को पंजाब चुनाव में केजरीवाल, जो कि आप के प्रचार की धुरी थे, पर हमले का नया मुद्दा मिल गया। तत्काल कुमार विश्वास को केंद्र सरकार की ओर से वाई श्रेणी की सुरक्षा भी मिल गई है।
ध्यान रहे कि 2017 में भी ऐन वक्त पर एक अलगाववादी के घर पर सोने का आरोप लगने से आम आदमी पार्टी की संभावनाओं को भारी धक्का लगा था। पंजाब इस मामले में इतना संवेदनशील इसलिए है कि उसने खालिस्तान समर्थक आंदोलन के दौरान भारी खून-खराबा और बरबादी देखी है। यह एक बड़ा सवाल है कि क्या कुमार विश्वास के आरोपों के बाद इस चुनाव में भी पिछली बार की तरह आम आदमी पार्टी की संभावनाओं को धक्का लगेगा?
राज्य की 117 विधानसभा सीटों के लिए कुल 71.95 प्रतिशत मतदान हुआ है। लेकिन क्योंकि इस बार पांच कोणीय मुकाबला था, इसलिए कोई दावा नहीं कर सकता कि ज्यादा मतदान किसके पक्ष में हुआ। आंदोलनकारी किसान संगठनों की बनाई पार्टी का उतना शोर नहीं सुनाई दिया, मगर अमरिंदर सिंह के साथ रहते हुए भाजपा ने इस बार अपने दम पर पंजाब में पांव जमाने की पूरी कोशिश की है। इसी तरह अकाली दल भी कई जगह कांग्रेस और आप के लिए चुनौती बनेगा, क्योंकि संगठन के स्तर पर वह खासा मजबूत है। इसके बावजूद ज्यादातर लोग मुख्य मुकाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच ही मान रहे हैं।
मालवा जहां सबसे ज्यादा 59 सीटें हैं, वहां सबसे ज्यादा मतदान हुआ है। इस क्षेत्र में पिछले चुनाव की तरह इस बार भी आम आदमी पार्टी का ज्यादा जोर था। यहां की दस सीटों पर तो 80 प्रतिशत से भी ज्यादा मतदान हुआ है। साफ है कि पिछली बार की तरह कांग्रेस के लिए यहां से 40 सीटें जीतना मुश्किल हो सकता है। मगर 23 सीटों और दलित वोटों के आधिक्य वाले दोआबा क्षेत्र में चरणजीत सिंह चन्नी की वजह से कांग्रेस फायदे में रह सकती है। वैसे भी पिछली बार यहां से 15 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। इसी तरह माझा में पिछली बार 25 में से 22 सीटें कांग्रेस को मिली थीं। इस बार कांग्रेस के कई दिग्गज यहां मैदान में हैं, जिनमें से कई आश्वस्त नहीं दिखते।
इस चुनाव की एक और खासियत रही। यह कि गांवों में आम आदमी पार्टी का ज्यादा जोर दिखाई दिया जबकि शहरों में उतना नहीं दिखा। बदलाव चाहने वाले यानी अकाली और कांग्रेस के अलावा किसी नई पार्टी को मौका देने के पक्षधर आम आदमी पार्टी का नाम लेते दिखे। लेकिन अगर कांग्रेस दलित वोटों के बूते पर जीतती है तो वह भी इस राज्य के लिए एक तरह का बदलाव ही होगा, क्योंकि उस हालत में पहली बार पंजाब यह जताएगा कि वह जातियों में बंटने को राजी है, जोकि पहले कभी नहीं था।
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