विनीत दीक्षित

नई दिल्ली। चीन से लगने वाली भारतीय सीमा पर हालात कितने संगीन हैं, दिल्ली में बैठ कर यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। लद्दाख में ऐसा कहने वाले अनेक लोग मिल जाएंगे। सन् 1962 के युद्ध के बाद इस 7 सितंबर की रात पहली बार वहां दोनों तरफ से हवाई फ़ायर हुए। भारत और चीन के हथियारबंद सैनिक बिलकुल आमने-सामने हैं। कई जगह तो उनके बीच केवल 150 से 200 मीटर की दूरी है और कोई नहीं कह सकता कि फिर कब गोली चल जाए।

चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने भी स्वीकारा है कि दोनों तरफ की फौजें 1962 के युद्ध विराम के बाद एक बार फिर ‘रायफल रेंज’ में आ खड़ी हुई हैं। हवाई फ़ायरिंग चेतावनी के लिए होती है। और सचमुच, इसके बाद दिल्ली और बीजिंग दोनों जगह राजनयिक गतिविधियां तेज हो गई हैं कि किसी तरह तनाव कम किया जाए। पर समस्या यह है कि चीन अपनी पोजीशन से हटने को तैयार नहीं है।

गलवान घाटी के बाद अब चुशूल घाटी में रजंगला का मैदान टकराव का नया केंद्र बन गया है। यह वही स्थान है जहां नवम्बर 1962 में भारत के 124 सैनिकों ने पीपल्स लिबरेशन आर्मी के सात आठ बड़े हमलों को धता बताई थी। इसी मुकाबले के चलते मेजर शैतान सिंह भाटी को मरणोपरांत परमवीर चक्र और उनके साथ शहीद हुए छह अन्य सैनिकों को वीर चक्र दिया गया था। किसी एक स्थान पर हुई लड़ाई में इतने लोगों को वीरता पदक मिलने का कोई और उदाहरण मुश्किल से मिलेगा।

चीनी सेना जानती है कि भारतीय सैनिकों के लिए रजंगला की रणभूमि के क्या मायने हैं। बीजिंग ने अपने औपचारिक बयान में कहा है कि भारतीय सैनिकों ने चुशूल-रजंगला इलाके में एलएसी को पार कर चीनी जमीन पर कब्जा कर लिया है और घात लगा कर रजंगला से सटी चोटियों पर अपने सैनिक तैनात कर दिए हैं।

मगर पिछले सप्ताह के प्रकरण के बावजूद भारतीय फ़ौज रजंगला के मैदान के पास उस चोटी पर नहीं पहुंच पायी है, जहां मेजर शैतान सिंह भाटी का असली बंकर अभी भी मौजूद है। वह चीनी फौज के कब्जे में है। इन पहाड़ियों पर 1962 के युद्ध के ज़िंदा गोले अभी भी बिखरे पड़े बताए जाते हैं जिन्हें पीएलए हटाने नहीं देती। ज़िंदा गोलों की वजह से पिछले हफ्ते भारतीय फौज का एक जांबाज़ सैनिक शहीद हो गया जो तिब्बती मूल का था और सेना की स्पेशल फ्रंटियर फोर्स में कमांडो था।

चीन का यह कहना गलत है कि भारतीय फौज ने एलएसी पार करने का प्रयास किया। दशकों से भारतीय सैनिक जिस एलएसी पर गश्त करते थे, वह तो चीनी फौज के इधर आ जाने के कारण भारतीय सैनिकों की पहुंच से दूर हो गई है। असल में एलएसी का उल्लंघन स्वयं चीन ने किया है और अब वह आगे आकर नई एलएसी गढ़ना चाहता है।

बहरहाल, इस बार हिमालय की शून्य से तीस डिग्री नीचे वाली सर्दियों में भी आईटीबीपी और सेना के जवान सीमा पर तैनात रहेंगे। हर साल सर्दी आने पर 17000-18000 फीट ऊंचाई वाली अग्रिम चौकियों को भारतीय जवान आम तौर पर बंद कर देते थे जबकि इनसे कुछ नीचे वाली दूसरी चौकियों पर गश्त लगातार चलती थी। लेकिन इस बार भारत ने तय किया है अग्रिम चौकियां बंद नहीं होंगी।

यह फैसला भारतीय सैनिकों की परीक्षा जैसा होगा, लेकिन यह भी सही है कि चीन की तरफ तिब्बती पठार पर पड़ने वाली सर्दी ज्यादा तकलीफदेह है। वहाँ पिघलती हुए ‘पर्माफ्रॉस्ट’ की भारी समस्या है। शून्य से तीस डिग्री नीचे की सर्दी में गिरने वाली बर्फ से तिब्बती पठार के कई इलाके अब पिघलने लगे हैं। ऐसे स्थानों पर भारी भरकम बख्तरबंद गाड़ियाँ चलना कठिन है। और चीन को पता है कि भारत को उसकी इस समस्या का अंदाजा है।