न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
राजेश जोशी
अमरिका के इतिहास में जेरल्ड फ़ोर्ड भी इतने ही दयनीय, इतने असहाय और इतने बेचारे साबित हुए थे जितना जो बाइडेन बुधवार की सुबह नज़र आ रहे थे. काबुल से खूँटा तुड़ाकर भागने के फ़ैसले को वो ज़ाहिर तौर पर उचित ठहरा रहे थे लेकिन व्हाइट हाउस से हुए इस टेलीविज़न प्रसारण के दौरान एक नहीं दो-दो वैताल उनकी पीठ पर सवारी गाँठ रहे थे. एक वैताल जॉर्ज डब्ल्यू बुश और दूसरा डॉनल्ड ट्रंप!
बीस साल पहले बुश जूनियर ने किसी रोमन सम्राट की तरह अफ़ग़ानिस्तान की ईंट से ईंट बजाने का संकल्प लिया, तालिबान को उखाड़ फेंका और अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र और क़ानून का राज लाने का ऐलान करके रिटायर हो गए. फिर 2016 में डॉनल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने और उन्हें लगा कि जंग कुछ ज़्यादा ही लंबी खिंच गई है, अमरीका ने तीन लाख अफ़ग़ान सैनिकों को ट्रेनिंग देकर इस क़ाबिल बना दिया है कि वो अब ख़ुद अपनी और अफ़ग़ानिस्तान की हिफ़ाज़त कर सकते हैं. जैसे ही उन्होंने तालिबान के साथ बातचीत शुरू करने के संकेत दिए, ये स्पष्ट था कि अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में थक चुका है, लेकिन तालिबान 12-15 बरस के बच्चों के हाथों में एके-47 थमाकर जंगजुओं की एक और पीढ़ी तैयार कर रहे थे.
बुश और ट्रंप के फैलाए रायते को घुटने टिकाकर समेटने की ज़िम्मेदारी बुज़ुर्गवार राष्ट्रपति बाइडेन पर आई. इसीलिए इस जंग के अंत का ऐलान करते वक़्त उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि हज़ारों अमरीकियों और अमरीका के समर्थक अफ़ग़ानियों को काबुल से बचाकर निकालने का श्रेय लें या अमरीका के मुँह पर पुती इस कालिख के लिए डॉनल्ड ट्रंप को ज़िम्मेदार ठहराएँ.
विपरीत परिस्थितियों में अमरीकियों को अफ़ग़ानिस्तान से निकालने के लिए कभी उन्होंने ख़ुद की पीठ थपथपाई तो फिर अगले ही वाक्य में तालिबान को मज़बूत बनाने का सरोपा डोनल्ड ट्रंप के गले में डाल दिया. उनके कहने का अर्थ था कि मैं तो मजबूरी में फँस गया क्योंकि मेरे पूर्ववर्ती (ट्रंप) ने 31 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान से निकलने का वचन तालिबान को दिया था. बाइडेन ने बताया कि ट्रंप ने पिछले साल 5000 तालिबान लड़ाकों को जेलों से रिहा करने का फ़ैसला कर लिया था. उन्होंने कहा, “जब मैं राष्ट्रपति बना तब तक तालिबान इतने मज़बूत हो चुके थे जितने वो 2001 में भी नहीं थे.”
ऐसा नहीं है कि अमरीकी राष्ट्रपतियों को अफ़ग़ानिस्तान का इतिहास मालूम नहीं है. उस पद पर जो आता है उसे दुनिया के इतिहास की अच्छी समझ हो न हो, जानकारी होती ही है. लेकिन इतिहास से मिले सबक़ उनको याद नहीं रहते. कम से कम अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में यह बात साबित हो चुकी है. अगर अमरीका और ‘वॉर ऑन टेरर’ में उसके साथ बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाला ब्रिटेन इतिहास से सीखता तो 31 अगस्त की आधी रात को काबुल से निकलने वाले अंतिम अमरीकी फ़ौजी अफ़सर मेजर जनरल क्रिस डोनाहुवे की नाइट कैमरा से ली गई हरे-काले रंगों की तस्वीर इतनी भुतहा नज़र नहीं आती.
पूरी फ़ौजी वर्दी पहने, दाहिने हाथ में राइफ़ल टांगे और भावहीन चेहरे वाले इस अमरीकी फ़ौजी की तस्वीर इतिहास के उन चंद शर्मनाक पन्नों में ठीक उसी तरह दर्ज हो गई है जैसे हारे हुए ब्रिटिश फ़ौजी अफ़सर विलियम ब्रायडन की पेंटिंग दर्ज हुई थी. एक प्यासे और थके हुए घोड़े पर उतने ही थके हुए, भूखे और पस्त ब्रायडन की ये पेंटिंग एलिज़ाबेथ बटलर ने बनाई थी. ब्रायडन ब्रिटिश साम्राज्यवाद की फ़ौज के उन 16,500 सैनिकों में थे जो जनवरी 1842 में अफ़ग़ानिस्तान को जीतने निकले थे. पर अँग्रेज़ों की इस मज़बूत फ़ौज के ख़िलाफ़ लड़ रहे अफ़ग़ानियों ने ब्रायडन को छोड़कर बाक़ी सब फ़ौजियों को गाजर-मूली की तरह काट डाला था. ब्रायडन को इसलिए छोड़ दिया गया ताकि वो अंग्रेज हाकिमों को बता सके कि अफ़ग़ानों ने उनके साथ क्या किया।
लगभग 180 साल पहले दूसरे एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध में ब्रिटेन की इस शर्मनाक और तबाह कर देने वाली हार पर इतिहासकार विलियम डैलरिम्पल ने जॉर्ज लॉरेंस के हवाले से लिखा है कि आने वाले राजनेताओं के लिए ये एक सबक़ होना चाहिए था. लॉरेंस पहले एंग्लो-अफ़गान युद्ध में ब्रिटेन की तरफ़ से लड़ चुके थे. उन्होंने सोलह हज़ार से ज़्यादा ब्रिटिश फ़ौजियों के अफ़ग़ान लड़ाकों के हाथों मारे जाने के तीस साल बाद लिखा, “काबुल छोड़कर भागने की विध्वंसकारी घटना भविष्य के राजनेताओं के लिए चेतावनी है कि वो उन नीतियों को फिर से अमल में न लाएँ जिनके कारण 1839-42 के बीच (हमें) कड़वे नतीजे भुगतने पड़े.”
डैलरिम्पल लिखते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान ने पश्चिम को हमेशा शिकस्त दी है. और जब भी अमरीका को शिकस्त मिली है या शिकस्त मिलने का अंदेशा हुआ है वो दुनिया को ‘शैतानी ताक़तों’ से बचाने के अपने घोषित मिशन को तुरंत भुला देता है. वो अपने पीछे हताशा, आगज़नी, तबाही, मारकाट और अराजकता की लंबी और न ख़त्म होने वाली श्रृंखला को छोड़ सिर पर पाँव रखकर भागता है. तब न उसे जनतंत्र का निर्यात याद रहता है, न ‘खुला समाज’ बनाने का वादा.
यही अमरीका ने 1975 में वियतनाम का युद्ध हारने के बाद दिया और यही काम अब वो अफ़ग़ानिस्तान में कर रहा है. दक्षिण वियतनाम में क़ाबिज़ जिन ताक़तों ने अपने मुल्क के कम्युनिस्ट छापामारों से लड़ने के लिए जिन अमरीकी सैनिकों का सहारा लिया था वो उन्हें उनके हाल पर छोड़ रातोंरात साइगॉन से अंतिम हैलीकॉप्टर पर सवार होकर प्रशांत महासागर के पार चले गए. वियतनाम में कम्युनिस्टों की फ़तह हुई.
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में चले त्रासद नाटक का जोकर अंतिम दृश्य तक अपनी जोकरई दिखाने से बाज़ नहीं आया. याद कीजिए 11 सितंबर 2001 को जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने होंठों को दबाकर और आँखों को सिकोड़कर वर्ल्ड ट्रेड सेंट्र के ट्विन टॉवर्स को ध्वस्त करने वालों को धमकी दी थी – वी विल स्मोक यू आउट – हम तुम्हारे बिलों में धुँआ फैलाकर तुम्हें ढूँढ निकालेंगे!
पूरे बीस साल बाद अफ़ग़ानिस्तान में अपनी हार का शोकगीत गाते हुए भी जो बाइडेन जोकर की भूमिका में उतर आए. अमरीका की नाक से ख़ून टपक रहा है, आँख काली हो चुकी है, लंगड़ा कर चल रहा है, कपड़े फटे हैं लेकिन ऐसे पस्त राष्ट्र के नाम संदेश में बाइडेन फिर भी हॉलीवुड के ग़ुब्बारा हीरो की तरह धमकाने से बाज़ नहीं आते. उन्होंने कहा (पता नहीं किससे), “जो लोग अमरीका को नुक़सान पहुँचाना चाहते हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि हम आराम नहीं करेंगे. हम तुम्हारा शिकार करेंगे. हम (तुम्हें) कभी माफ़ नहीं करेंगे. हम कभी भूलेंगे नहीं.” जोकर पलटकर व्हाइट हाउस के अंत:पुर में गया. नाटक ख़त्म हुआ. तालियाँ बजाइए.
(राजेश जोशी बीबीसी हिंदी रेडयो के पूर्व संपादक हैं और वर्तमान में हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय में विज़िटिंग प्रोफेसर हैं।)
Comments are closed for this post.