न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
महेंद्र पाण्डेय
उत्तराखंड की त्रासदी ने हिमालय के ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों का भविष्य बता दिया है। ऋषिगंगा नदी में एक ग्लेशियर का टुकड़ा गिरा और फिर बाढ़ आने के कारण दो पन-बिजली परियोजनाएं बह गईं। इसके बाद आनन-फानन में बताया गया कि ऋषिकेश और हरिद्वार तक इसका असर नहीं आयेगा, पर वहां भी इसका असर पहुंचा और अब तो इससे निकली नहर का पानी भी इस हद तक गन्दा हो गया है कि दिल्ली में भी पानी की किल्लत हो चली हैI
वैज्ञानिक लम्बे समय से ऐसी आपदाओं की चेतावनी देते रहे हैं। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद तो ऐसा लगा मानो अब सरकारें सचेत हो गईं हैं, लेकिन जल्दी ही हिमालय पर इन्फ्रास्ट्रक्चर और सड़क परियोजनाओं की बाढ़ सी आ गईI
वैज्ञानिकों के अनुसार पूरा हिन्दुकुश हिमालय क्षेत्र एक तरफ तो जलवायु परिवर्तन से तो दूसरी तरफ तथाकथित विकास परियोजनाओं से खतरनाक तरीके से प्रभावित है। हिन्दूकुश हिमालय लगभग 3500 किलोमीटर के दायरे में फैला है, और इसके अंतर्गत भारत समेत चीन, अफगानिस्तान, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल और मयन्मार का क्षेत्र आता है। इससे गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेकोंग, यांग्तज़े और सिन्धु समेत अनेक बड़ी नदियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके क्षेत्र में लगभग 25 करोड़ लोग बसते हैं और 1.65 अरब लोग इन नदियों के पानी पर आश्रित हैं। अनेक भू-विज्ञानी इस क्षेत्र को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहते हैं क्योंकि दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव के बाद सबसे अधिक बर्फीला क्षेत्र यही है। पर तापमान वृद्धि के प्रभावों के आकलन की दृष्टि से यह क्षेत्र उपेक्षित रहा है। हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र में 5000 से अधिक ग्लेशियर हैं और इनके पिघलने पर दुनिया भर के सागर तल में दो मीटर की बढ़ोत्तरी हो सकती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में वर्ष 2100 तक यदि तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस ही बढ़ता है तब भी हिन्दूकुश हिमालय के लगभग 36 प्रतिशत ग्लेशियर हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगे। यदि तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया तो लगभग 50 प्रतिशत ग्लेशियर ख़त्म हो जायेंगे, पर यदि तापमान 5 डिग्री तक बढ़ जाता है, जिसकी पूरी संभावना भी है, तो उस हालत में 67 प्रतिशत ग्लेशियर ख़त्म हो जायेंगे। तथ्य यह है कि वर्ष 2018 तक तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ भी चुका है।
इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के वैज्ञानिक फिल्लिपस वेस्टर के अनुसार यह एक ऐसी भयानक आपदा है, जिसका कारण प्रकृति नहीं बल्कि मानव है, जिसके बारे में कभी विस्तार से चर्चा नहीं की जाती, पर इससे करोड़ों लोग प्रभावित होंगे। इस आपदा को गंभीरता से लेने की जरूरत इसलिए भी है कि 1970 के दशक से अब तक हिन्दूकुश हिमालय के 15 प्रतिशत से अधिक ग्लेशियर ख़त्म हो चुके हैं। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण 100 वर्षों में जितनी भयंकर बाढ़ आती थी, उतनी अब 50 वर्षों में ही आ जाती है। ग्लेशियर ख़त्म होने का प्रभाव खेती के साथ-साथ पन-बिजली योजनाओं पर भी पड़ेगा क्योंकि इस क्षेत्र में अधिकतर बिजली इससे ही उत्पन्न होती है।
ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण वर्ष 2050 से 2060 के बीच यहाँ से उत्पन्न होने वाली नदियों में पानी का बहाव अधिक हो जाएगा, पर वर्ष 2060 के बाद बहाव कम होने लगेगा और पानी की किल्लत शुरू हो जायेगी। यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रिस्टल के प्रोफ़ेसर जेम्मा वधम के अनुसार हिमालय के ग्लेशियरों के बारे में जो कुछ कहा जा रहा है वह पूरी तरह सही है और इससे यह भी पता चलता है कि तापमान वृद्धि के प्रभाव से किस क्षेत्र को बचाने की सबसे अधिक आवश्यकता है। वर्ष 2006 में ब्रिटिश भूवैज्ञानिक रेन द्वारा प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार भी हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की दर पिछले कुछ दशकों के दौरान तेजी से बढ़ी है।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड के एक प्रेजेंटेशन के मुताबिक पिछले तीन दशकों में ग्लेशियर पिघलने की दर तेज हो गयी है, पर पिछले दशक में यह पहले से कहीं तेज थी। भूटान में ग्लेशियर 30 से 40 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिकुड़ रहे हैं। भारत का दूसरा सबसे बड़ा ग्लेशियर, गंगोत्री जिससे गंगा नदी उत्पन्न होती है, 30 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर की लम्बाई 28.5 किलोमीटर है।
एक अनुमान के मुताबिक पूरे विश्व में 198000 ग्लेशियर हैं जिनमें से लगभग 9000 हमारे देश में हैं। हिमालय का लगभग 30000 वर्ग किलोमीटर हिस्सा ग्लेशियर से ढका है, जिससे यहाँ से उत्पन्न नदियों में लगभग 90 लाख घनमीटर पानी प्रतिवर्ष बहता है। फरवरी 2013 में मार्क डब्लू विलियम्स के सम्पादन में एक पुस्तक प्रकाशित की गयी थी ‘द स्टेटस ऑफ़ ग्लेशियर्स इन द हिन्दूकुश–हिमालयन रीजन।’ इस पुस्तक के अनुसार इस पूरे क्षेत्र का विस्तार 4192000 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से 1.4 प्रतिशत क्षेत्र में ग्लेशियर हैं। लगभग 60000 वर्ग किमी क्षेत्र में स्थित 54000 ग्लेशियर की जानकारी इस पुस्तक में है, जिसमें 6000 घन किलोमीटर बर्फ जमा है। इस बर्फ में जमा पानी की मात्रा का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यह पूरे क्षेत्र में होने वाली सालाना बारिश से तीन गुना अधिक है।
‘साउथ एशियन नेटवर्क ऑन डैम रिवर्स एंड पीपल’ नामक संस्था के निदेशक हिमांशु ठक्कर के हिसाब से हिमालय की नदियाँ विकास परियोजनाओं, मलबे, मलजल, रेत और पत्थर खनन के कारण खतरे में हैं। जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है, पर दुखद यह है की अब इसका व्यापक असर दिखने लगा है, इसलिए नदियाँ गहरे दबाव में हैं। जल-विद्युत परियोजनाएं नदियों के उद्गम के पास ही तीव्रता वाले भूकंप की आशंका वाले क्षेत्रों में बिना किसी गंभीर अध्ययन के स्थापित की जा रही हैं और पर्यावरण स्वीकृति के नाम पर केवल खानापूर्ति की जा रही है। कनाडा के पर्यावरण समूह ‘प्रोब इन्टरनेशनल’ की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर पैट्रिशिया एडम्स के अनुसार ऐसे क्षेत्रों में बाँध बनाना हमेशा से बहुत खतरनाक रहा है क्योंकि इससे पहाड़ियां अस्थिर हो जातीं हैं और चट्टानों के दरकने का खतरा हमेशा बना रहता है।
ग्लेशियर के तेजी से पिघलने पर हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में अनेक झीलें बन जायेंगी और इनके टूटने पर नीचे के क्षेत्रों में केदारनाथ जैसी आपदा आ सकती है। जर्नल ऑफ़ हाइड्रोलोजिकल प्रोसेसेज में प्रकाशित एक शोध के अनुसार वर्ष 1976 से 2010 के बीच हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में ग्लेशियर के पानी से बनी झीलों का क्षेत्र 122 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और ऐसी 20000 से अधिक झीलों की पहचान की जा चुकी है। लगभग सभी हिमालयी नदियाँ जिन क्षेत्रों से बहती हैं, वहां की संस्कृति का वे अभिन्न अंग हैं। यदि ग्लेशियर नष्ट हो जायेंगे तो नदियाँ भी नहीं रहेंगी और तब सम्भवतया संस्कृति भी बदल जायेगी। (आभार – समय की चर्चा )
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