न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
सुशील कुमार सिंह
सीबीएसई यानी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और सीआईएससीई यानी काउंसिल फॉर द इंडियन स्कूल सर्टीफिकेट एग्जामिनेशन की बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं भी आखिरकार रद्द कर दी गईं। दसवीं की बोर्ड परीक्षाएं तो पहले ही रद्द हो चुकी थीं। सीबीएसई की तरह कई राज्यों के बोर्ड भी दसवीं के नतीजे छात्रों के बारे में उनके स्कूलों के आंकलन के आधार पर जारी करने का ऐलान कर चुके हैं। इसे ‘इंटरनल असेसमेंट’ या आंतरिक आंकलन कहा जा रहा है। पिछले साल भी कई जगह ऐसा हुआ था और अब भी हो रहा है।
यह आंकलन कौन करता है? या कौन करेगा? वही अध्यापक करेंगे जो रोजाना इन छात्रों को क्लास में रूबरू या फिर ऑनलाइन पढ़ाते रहे हैं। हमेशा से बोर्ड के इम्तहानों की खूबी रही है कि कापियां या उत्तर पुस्तिकाएं जांचने वाले किसी अध्यापक को यह पता नहीं रहता था कि उसके हाथ में जो कापी है वह किस छात्र की है। वे तो यह तक नहीं जानते थे कि संबंधित परीक्षार्थी कोई लड़का है या लड़की।
बोर्ड के इम्तहान का सबसे बड़ा थ्रिल ही यह था कि कोई अनजान अध्यापक किन्हीं अज्ञात विद्यार्थियों को नंबर देते थे। इस तरह कापियां जंचवाने का मकसद यह था कि अध्यापक बगैर किसी राग और द्वेष के, जैसा भी उत्तर लिखा गया है उसके हिसाब से नंबर दें। इसीलिए देश भर में बोर्ड के इम्तहानों की साख और अहमियत थी, या है।
लेकिन कोरोना के चक्कर में ज्यादातर जगह दसवीं की बोर्ड परीक्षा में छात्रों को नंबर देने की जिम्मेदारी उन्हीं अध्यापकों पर आ पड़ी है जो रोजाना उन्हें पढ़ाते रहे हैं। रोज उनसे मिलते रहे हैं। वजह कुछ भी हो, पर उनमें से कई को वे फटकारते रहे हैं तो कुछ उनके बेहद प्रिय छात्र हैं।
अलग-अलग कारणों से वे भावनात्मक और मानसिक तौर पर किसी विद्यार्थी के काफी नजदीक हो सकते हैं तो किसी से बहुत दूऱ। अब इन्हीं अध्यापकों और अध्यापिकाओं को अपने ही छात्रों का आंकलन करना है।
वैसे भी जिन राज्यों ने दसवीं की परीक्षा आंतरिक आंकलन के आधार पर कराने का फैसला किया है, उन्होंने यह भी कहा है कि सभी छात्रों को पास किया जाएगा। यानी किसी छात्र के किसी विषय में नंबर कुछ कम बन रहे हैं तो भी वह ‘ग्रेस मार्क्स’ आदि के जरिये खींचतान कर पास कर दिया जाएगा। और जब सभी को पास किया जाना है तो फिर मुद्दा यह रह जाता है कि किसे कितने नंबर मिले।
सीबीएसई का दसवीं का रिजल्ट तो जुलाई में आएगा। लेकिन कुछ राज्यों के बोर्ड अपने दसवीं के रिजल्ट घोषित भी कर चुके हैं।
पंजाब स्कूल एजूकेशन बोर्ड, पीएसईबी के दसवीं के रिजल्ट में इस बार 99.93 फीसदी छात्र पास हुए हैं। इस बोर्ड के इतिहास में पहले कभी इतने छात्र पास नहीं हुए थे। साफ है कि जो छात्र पास नहीं हो पाए, उनके पीछे ज़रूर कोई बड़ी वजह रही होगी।
इसी तरह तेलंगाना में लगातार दूसरी बार दसवीं अथवा स्टेट सेकेंडरी स्कूल सर्टिफिकेट के नतीजों में सभी 5.21 लाख बच्चे पास हो गए। यह भी कोई खास बात नहीं है क्योंकि बोर्ड पहले ही कह चुका था कि सभी छात्रों को पास कर दिया जाएगा।
खास बात तो छत्तीसगढ़ के नतीजों में निकली। सीजीबीएसई यानी छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में न केवल सभी छात्र पास हो गए बल्कि 97 प्रतिशत छात्र फ़र्स्ट डिवीजन से पास हुए। इस परीक्षा में कुल 461093 विद्यार्थी बैठे थे जिनमें से 446393 को फर्स्ट डिवीजन मिला है। बाकी में से 9024 छात्रों का सेकेंड डिवीजन और 5673 का थर्ड डिवीजन आया। ध्यान रहे कि अन्य राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में भी कोरोना से पहले फर्स्ट डिवीजन में पास होने वाले बच्चों का प्रतिशत सामान्य सा रहता आया था। मसलन, 2017 में छत्तीसगढ़ बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में 392163 छात्र बैठे थे और उनमें से 73.62 फीसदी ही पास हुए थे। अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनमें से कितने बच्चों को फर्स्ट डिवीजन मिला होगा। यानी कमाल तो इस बार हुआ है।
कोरोना के भयावह हालात में सब छात्रों को पास कर दिया जाना अभिभावकों और बच्चों के लिए राहत की बात है, बल्कि मौजूदा परिस्थितियों में इसे छात्रों का अधिकार भी कहा जा सकता है। मगर सरकारों को इन नतीजों को अपने स्कूलों का वास्तविक और वस्तुपरक मूल्यांकन कतई नहीं बताना चाहिए।
अगर कोई बोर्ड या कोई सरकार ऐसा दावा करती है तो फिर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। सबको पास कर दिया जाए, यहां तक तो समझ में आता है, लेकिन क्या किसी राज्य में दसवीं के बोर्ड के इम्तहान में 97 फीसदी बच्चे फर्स्ट डिवीजन ला सकते हैं? छत्तीसगढ़ बोर्ड का यह रिजल्ट एक रोमांचक घटना है। कहा नहीं जा सकता कि बाकी तीन प्रतिशत छात्र क्यों इस उपलब्धि से महरूम रह गए।
असल में, बच्चों के माता-पिता सब जानते हैं। उनसे कुछ छुपा नहीं होता। वे अगर खुद पढ़े-लिखे हैं और अपने बच्चों से राब्ता रखते हैं तो उन्हें पता रहता है कि बच्चों में कौन किस विषय में तेज है और किस विषय में फिसड्डी। इसीलिए वे ट्यूशन लगाते हैं। उन्हें इसका भी अनुमान रहता है कि उनका बच्चा किस विषय में कितने नंबर ला सकता है और उसकी कौन सी डिवीजन आ सकती है।
इसी तरह गांव-देहात के लोग या ऐसे अभिभावक जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, उन्हें भी इतना तो भान रहता ही है कि उनके बच्चे का मन पढ़ाई में लगता है कि नहीं। वे इसी से उसके रिजल्ट का मीज़ान लगाते हैं। क्या छत्तीसगढ़ में इतनी बड़ी संख्या में अभिभावक अपने बच्चों के फर्स्ट डिवीजन से पास होने की उम्मीद कर रहे होंगे?
दिल्ली, अमृतसर, लखनऊ या रायपुर, कहीं का भी, कोई भी स्कूल ले लीजिये। हर स्कूल चाहता है कि उसका रिजल्ट दूसरे स्कूलों से बेहतर आए। वह दूसरों से आगे निकले। उसके यहां पढ़ने वाले ज्यादा से ज्यादा बच्चे पास हो जाएं और खूब नंबर लाएं।
प्राइवेट हों या सरकारी, सभी स्कूल हमेशा से ऐसा चाहते हैं। क्या महामारी ने ऐसा करने का मौका, खुद उनके ही हाथ में दे दिया है?
मेरे एक पत्रकार मित्र को कुछ साल पहले दक्षिण दिल्ली के दो पत्रकारिता संस्थानों में एक्सटर्नल एग्जामिनर के तौर पर बुलाया गया। दोनों ही जगह उनसे गुजारिश की गई कि किसी भी बच्चे को पैंतीस से कम नंबर नहीं दें। यह वायवा जैसा एग्जाम था जिसके कुल पचास नंबर थे। दोनों जगह दलील यह दी गई कि संस्थान का रिजल्ट ठीक रखने के लिए यह जरूरी है।
वैसे, इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि तीस-चालीस साल पहले के मुकाबले अब लगभग सभी राज्यों के बोर्ड इम्तहानों में अपेक्षाकृत ज्यादा नंबर मिलने लगे हैं और लोग पास भी पहले से ज्यादा होने लगे हैं।
पहले ऐसा नहीं होता था। तब घिस-घिस कर नंबर मिलते थे। किसी तरह थर्ड डिवीजन भी पास हो गए तो मिठाई बंटती थी। सेकेंड डिवीजन में मां-बाप की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था और फर्स्ट डिवीजन तो समझिये कि दुर्लभ चीज थी।
लोग जगह-जगह मन्नत मांगते फिरते थे कि उनका बेटा या बेटी अच्छे नंबरों से पास हो जाए। इनमें ज्यादातर लोगों का अच्छे नंबरों से तात्पर्य सेकेंड डिवीज़न से हुआ करता था। फर्स्ट डिवीजन के बारे में वे सोचते तक नहीं थे। नतीजा यह था कि इस मामले में बहुत से बच्चों के अपने सपने भी सेकंड डिवीजन तक जाकर खत्म हो जाते थे।
अब तो उत्तर प्रदेश (जहां से मैंने पढ़ाई की) में भी हाईस्कूल में पास होने वालों का प्रतिशत अस्सी और इंटरमीडिएट में सत्तर से ऊपर होने लगा है, मगर उन दिनों उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद के दसवीं और बारहवीं के इम्तहानों में यह प्रतिशत पचपन के आसपास हुआ करता था। मतलब यह कि माध्यमिक शिक्षा के देश के सबसे बड़े (तब तो उत्तराखंड भी इसमें शामिल था) बोर्ड में हर साल लगभग आधे बच्चे फेल हो जाते थे। यानी केवल पास हो जाना भी एक नेमत थी।
अन्य राज्यों में भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। पास होने वालों में सबसे ज्यादा संख्या थर्ड़ डिवीजन वालों की होती और उसके बाद सेकेंड डिवीजन वालों की। फर्स्ट डिवीज़न वाले सबसे कम, बल्कि बहुत कम होते। वे जैसे अनोखे और अद्भुत लोग होते थे। मोहल्ले के जमावड़ों में उनके किस्से सुने और सुनाए जाते। पिताओं का खून बढ़ जाता और मांओं को जैसे एक और जेवर मिल जाता। खुद बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ जाता और उसकी दोस्तियां नए सिरे से तय होने लगतीं।
मगर यह सब हर घर की अपनी माली और सामाजिक हैसियत के हिसाब से होता। उसी के मुताबिक उनकी खुशी अथवा दुख की हदें बनतीं और उनके किस्से जन्मते। फेल हो जाना आज भी बच्चों और उनके मां-बाप को निराश करता है।
इस निराशा के वास्तविक अर्थ किसी के घर की अपनी, दुनिया से छुपाई गई, स्थितियों में छुपे होते हैं। उन दिनों फेल होने की कहानियां आत्महत्या की कोशिश से लेकर घर से भागने और पढ़ाई छोड़ कर कोई छोटा-मोटा काम शुरू कर देने की घटनाओं में पिरोई होती थीं। अब ऐसा कम मिलेगा, लेकिन तब हम कई लड़कों को दो-तीन या उससे भी ज्यादा बार हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में फेल होते देखते थे। हर साल उनकी नेगेटिव ख्याति पहले से ज्यादा फैलती जाती थी। उनमें ऐसे लड़के भी थे जिन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, मगर कुछ ऐसे भी थे जिनकी पृष्ठभूमि उनकी नाकामी को एक बेहद दारुण प्रसंग बना देती थी।
सबका मानना था कि जीवन के करियर का पहला सबसे मुश्किल पड़ाव हाईस्कूल है और दूसरा इंटरमीडिएट। आगे की पढ़ाई में भी मुश्किलें हैं, पर इतनी जानमारी नहीं है। इसलिए, इन पड़ावों को सर उठा कर पार कर लिया तो बेहतर भविष्य की उम्मीद बंधती थी। नहीं तो जीवन व्यर्थ और भविष्य अंधकारमय। देश में हर पीढ़ी के असंख्य लोग इस आतंक से गुजरे हैं। बड़े शहरों में रहते हुए इस बात का अंदाजा लगाना शायद आसान नहीं है कि आज भी लाखों या करोड़ों बच्चे उसी पड़ाव से और उस पड़ाव के उसी तनाव से हर साल गुजरते हैं।
मगर अभी जो नतीजे हम देख रहे हैं, वे उलझन पैदा करते हैं। स्कूलों से दसवीं के सभी छात्रों को पास करने के लिए कहा गया होगा, लेकिन निश्चित ही उनसे यह नहीं कहा गया होगा कि ज्यादा से ज्यादा बच्चों को फर्स्ट डिवीजन दे दी जाए। इस मामले को केवल छत्तीसगढ़ तक सीमित मान कर चलना भी ठीक नहीं होगा। बाकी राज्यों के दसवीं के बोर्ड नतीजों में केवल इतना बताया जा रहा है कि सभी छात्र पास हो गए। उनमें फर्स्ट और सेकंड डिवीजन वालों का प्रतिशत नहीं बताया जा रहा। पता लगाने की बात है, हो सकता है कि वहां भी फर्स्ट डिवीजन की बाढ़ आ गई हो।
इसके बाद, बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं का नंबर है। रिजल्ट के लिए उनमें तरीका कोई भी आजमाया जाए, लेकिन नतीजे उदार होने वाले हैं।
हमारे विश्वविद्यालयों में सामान्य तौर पर जो सीटें हैं, उनके लिए पहले से ही मारामारी चलती है। शायद अब उन्हें और सख्ती बरतनी पड़े। किसी समय, छात्र आपस में कहा करते थे कि सरकार बोर्ड परीक्षाओं में ज्यादा बच्चों को इसलिए पास नहीं करती कि उसी हिसाब से नौकरी मांगने वालों की संख्या बढ़ेगी और नौकरियां सरकार के पास हैं नहीं।
आज हालत यह है कि नौकरियां तो पहले ही कम थीं जो कोरोना के चक्कर में और घट गईं, जबकि बच्चे पहले से ज्यादा पास हो रहे हैं। पता नहीं, अब वे आपस में क्या बतियाते होंगे।
Comments are closed for this post.