न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क

सुशील कुमार सिंह

कल्पना कीजिए कि कोई पांच साल की उम्र में गायन सीखना शुरू करता है और दुनिया छोड़ने से दो साल पहले नब्बे की उम्र में आखिरी गीत रिकॉर्ड कराता है। रिकॉर्डिंग की कोई मांग उसके बाद भी आ जाती, बशर्ते शरीर ने साथ दिया होता। लता मंगेशकर का स्वास्थ्य ठीक रहता तो रोजाना सुबह का वह रियाज़ बंद नहीं होता जो मुंबई के पैडर रोड की प्रभु कुंज सोसाइटी के उनके पड़ोसी बरसों पहले, जब वे यहां रहने आई थीं, तब से सुनते आए थे और उसके आदी हो चुके थे। वे जहां भी रहीं यह रियाज़ उनके साथ चला और आठ दशक से भी ज्यादा समय तक चलता रहा। उसी तरह जैसे उनकी आवाज चार पीढ़ियों से हमारे साथ चली आ रही थी।

उनकी आखिरी रिकॉर्डिंग भारतीय सेना के सम्मान में लिखे गए एक गैर फिल्मी गीत की थी। उनका आखिरी फिल्मी गीत ‘डुन्नो वाई…न जाने क्यों’ में 2010 में आया। इससे पहले 2006 में आई ‘रंग दे बसंती’ में उन्होंने एआर रहमान के संगीत में गाया था। और उससे पहले 2004 में यश चोपड़ा ने ज़िद करके तीस साल पुरानी दिवंगत मदन मोहन की छोड़ी धुनों पर उनसे ‘वीर ज़ारा’ के लिए गवाया। उस समय भी लता की उम्र करीब 73 साल थी और उनकी आवाज पहले जैसी नहीं रही थी। फिर भी उन्होंने उसके गीतों में ऐसा तिलिस्म बांधा कि यश चोपड़ा ने उन्हें एक महंगी कार गिफ़्ट की।

उम्र के साथ सबकी आवाज बदलती है। शायद इसलिए कि आवाज भी प्रौढ़ होती जाती है। इसीलिए चालीस, पचास, साठ, सत्तर और अस्सी के, यानी हर दशक के गानों में लता की आवाज भी कुछ अलग लगती है। लेकिन उसका तिलिस्म लता ने कभी टूटने नहीं दिया। ‘मिलेनियल्स’ और नब्बे के दशक में जन्मे लोगों के लिए उस तिलिस्म का अनुमान लगा पाना मुश्किल होगा जिसे आज़ादी के आसपास और उसके तीस-पैंतीस साल बाद तक होश संभालने वालों ने अनुभव किया और जिससे वे कभी बाहर नहीं निकल सके।

टीवी तब तक नहीं आया था, मगर रेडियो की हैसियत उससे कम नहीं थी। उन दिनों किसी पान वाले, किसी हेयर कटिंग सैलून, किसी ढाबे या रेस्तरां के रेडियो या ट्रांजिस्टर से या फिर किसी शादी में बजते लाउडस्पीकर पर कोई गाना सुन कर कितने ही लोग ठिठके होंगे और उसे पूरा सुन कर ही आगे गए होंगे। कहीं दूर बजता कोई गाना भी तब आपको अपनी तरफ खींचता सा लग सकता था।

आप पाएंगे कि फिल्में दुनिया भर में जनजीवन का एक ज़रूरी हिस्सा हैं। लेकिन हमारे यहां, कोई माने या न माने, फिल्मी गाने जीवन का ज्यादा बड़ा संबल रहे हैं। और उन गानों में सबसे ज्यादा उपस्थिति लता की रही है। जीवन के हर मौके, हर मोड़ पर उनकी आवाज लोगों के साथ खड़ी रही। हर मोड़ के उपयुक्त और सहारा देती हुई। जो सबकी थी, सबके लिए थी। इस तरह सबके पास लता की आवाज का अपना-अपना हिस्सा था।

देश की तमाम भाषाओं का हर गायक उन्हें सम्मान से देखता था। उनके जैसा बनना चाहता था। कई संगीतकार और निर्माता-निर्देशक किन्हीं कारणों से उनसे दूर भी हुए तो आखिरकार उन्हें उनके पास लौटना पड़ा। उन्होंने वास्तव में कितने गाने गाए, इसका पक्का हिसाब शायद किसी के पास न मिले। कोई यह संख्य़ा तीस हजार तो कोई पचास हजार बताता है। कहीं लिखा मिलेगा कि उन्होंने पंद्रह भाषाओं में गाने गाए और कहीं छत्तीस भाषाओं में। मुंबई और गुजरात के दो लोगों का दावा है कि उनके पास लता के गाए तीन सौ से ऊपर ऐसे गाने मौजूद हैं जो फिल्मों के लिए गवाए तो गए थे, लेकिन उनमें लिए नहीं गए।

राज्यसभा की सदस्यता, दादा साहब फाल्के पुरस्कार और भारत रत्न के अलावा भी उन्हें अनगिनत पुरस्कार मिले। उनकी व्याप्ति का विस्तार किसी सर्वहारा से लेकर प्रधानमंत्रियों तक था। कोई कह सकता है कि उनके पास क्या नहीं था। फिर भी, एक इंटरव्यू में जब पूछा गया कि अगर आपको दूसरा जन्म मिले तो क्या आप फिर से लता मंगेशकर बनना चाहेंगी, तो उनका जवाब था- ‘नहीं, लता मंगेशकर नहीं।‘ इंटरव्यू लेने वाला चौंका- ‘क्यों?’ लता ने कहा- ‘लता मंगेशकर होने की तकलीफ़ लता मंगेशकर ही जानती है।’

बहुत से लोग इसे उनके नितांत निजी एकाकीपन से जोड़ते हैं। इस सिलसिले में राजसिंह डूंगरपुर का नाम भी लिया जाता है जो डूंगरपुर राजघराने से थे और लता के बेहद करीब थे। कहा जाता है कि राजघराने ने एक साधारण परिवार में जन्मी लता को स्वीकारने से इन्कार कर दिया, जिसके बाद राजसिंह और लता दोनों ने आजीवन विवाह नहीं किया। राजसिंह डूंगरपुर क्रिकेट खिलाड़ी भी थे और बाद में बीसीसीआई में विभिन्न पदों पर रहे थे। साथ ही वे देवराज पुरी, विजय मर्चेंट, विजी यानी महाराज कुमार विजयनगरम और बॉबी तल्यारखान के साथ क्रिकेट की कमेंटरी भी करते थे।

लेकिन क्या लता के एकाकीपन के लिए केवल यह पहलू ही जिम्मेदार रहा होगा? अपनी आवाज की कलात्मकता, अपने हुनर की जिस बुलंदी पर वे थीं, वहां पहुंच कर व्यक्ति इस कदर सार्वजनिक हो जाता है कि वह किस्सों में बिखर जाता है। शायद यह भी उनमें से एक किस्सा भर हो। शायद लता उस मकाम पर थीं कि उनके हुनर ने उन्हें उनसे ही छीन लिया था। वे दूसरों की ज्यादा और अपने आप की कम रह गई थीं। यों भी, जो सबका होता है वह अपना कैसे रह सकता है।

वे अब कोई नियमित तौर पर गा नहीं रही थीं। फिर भी उनका जाना एक बेहद मधुर धुन के थम जाने की तरह था जिससे यह पूरा उपमहाद्वीप शोक में डूब गया। किसी अच्छी धुन और किसी अच्छी आवाज़ में सबसे बड़ी कमी यह होती है कि वह आपको यह नहीं बताती कि जब वह थम जाए तो आप क्या करें।