न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
सुशील कुमार सिंह
हमारे यहां किसी फिल्म के नाम या शीर्षक का कॉपीराइट दस साल बाद खत्म हो जाता है। इसीलिए एक नाम की कई-कई फिल्में आपको याद हो सकती हैं।
‘अदालत’ नाम की फिल्म भी कम से कम तीन बार बनी है। इनमें से एक ‘अदालत’ में अमिताभ बच्चन की दोहरी भूमिका थी। वे बाप भी बने थे और बेटा भी।
फिल्म के क्लाइमैक्स में जब पिता अमिताभ पुलिस की गोली से मरने लगते हैं तो बेटे अमिताभ को उसके नाम राजू से बुलाने की अपनी आदत छोड़ ‘मुन्ना’ बुलाने लगते हैं।
अवधी में बोले गए उनके संवाद और मुन्ना कहने का उनका तरीका आपको तत्काल ‘गंगा जमना’ के दिलीप कुमार के पास पहुंचा देता है, जिनका ‘ना धन्नो ना’ या ‘ना मुन्ना ना’ लोगों की यादों में जड़ा हुआ था और है।
हैरानी यह कि ‘अदालत’ में बेटे अमिताभ की मां बनीं वहीदा रहमान ने उसे पूरी फिल्म में एक बार भी मुन्ना नहीं कहा था। यह फिल्म 1976 में आई थी। तब तक अमिताभ बच्चन को फिल्मों में आए कई साल बीत चुके थे। ‘आनंद’, ‘ज़ंजीर’, ‘शोले’ और ‘दीवार’ धूम मचा चुकी थीं।
राजेश खन्ना पार्श्व में जा चुके थे और अमिताभ स्थापित हो चुके थे। यानी यह नहीं कहा जा सकता कि उनके आत्मविश्वास में कोई कमी रही होगी, और इसलिए वे दिलीप कुमार का सहारा ले रहे होंगे। मगर यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। कितने ही लोग उनके बोलने और उनकी निगाहों में अक्सर दिलीप कुमार की परछाईं महसूस करते रहे हैं।
कोई जानबूझ कर ऐसा करे, यह ज़रूरी नहीं है। असल में, हर व्यक्ति अपने परिवार, दोस्तों, अपने अध्यापकों और अपनी पसंद के क्षेत्रों में उस समय की स्थापित हस्तियों में से अपने आदर्श चुनता है।
इस चयन का योगदान और प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर भी रहता है। जो कुछ आपने पढ़ा-लिखा है, उसके अलावा आपकी सफलताएं, असफलताएं, आपकी कुंठाएं, आपकी रुचियां और आपके चुने हुए ये आदर्श ही आपको गढ़ते हैं। बाहरी को शायद आप छुपा लें, लेकिन आपके भीतरी व्यक्तित्व को इन्हीं से आकार मिलता है। यानी हम कई अलग-अलग लोगों से कुछ न कुछ लेकर बने होते हैं। किसी से कुछ कम और किसी से कुछ ज़्यादा।
अक्सर इसका प्रभाव आपकी रचनाशीलता में भी साफ झलकता है। इतना साफ़ कि लोग इसे नकल भी कह सकते हैं और चोरी भी।
शायद सत्तर के दशक की बात है, जब एक नए कथाकार मोहर सिंह यादव की एक कहानी में आबिद सुरती की किसी कहानी से कुछ पैरा ज्यों के त्यों उठा लिए गए थे। उन दिनों यह विवाद खासा चर्चित हुआ था।
मुझे याद है, आबिद सुरती ने दोनों कहानियां उद्धृत करते हुए लिखा था कि मैं हैरान हूं कि किसी ने मेरी कहानी के कई हिस्से चुरा कर मेरी ही पत्रिका में छपवा भी लिए।
कहानीकार, पत्रकार और कार्टूनिस्ट आबिद सुरती ‘धर्मयुग’ में काम करते थे और इस साप्ताहिक के अंतिम पन्ने पर ‘ढब्बूजी का कोना’ नाम से उनके कार्टून छपा करते थे। मोहर सिंह यादव ने पहले तो चोरी से इन्कार किया, मगर बाद में उन्होंने जो जवाब दिया उसका तात्पर्य यह था कि हमारा पढ़ा हुआ कई बार हमारे मस्तिष्क में इस तरह बैठ जाता है कि हम उसे अपना मानने लगते हैं और उसका इस्तेमाल करते समय हमें यह याद नहीं रहता कि मूल रूप से वह किसी और का है।
अमिताभ बच्चन कई मामलों में दिलीप कुमार का भ्रम देते हैं। अपने गुस्से और असंतोष में, अपने रोने में और कई बार जब वे अचानक चिल्लाते हैं, तब। क्या वे दिलीप कुमार के कुछ हिस्सों की चोरी या नकल करते हैं? या फिर इन हिस्सों को वे अपना मान बैठे हैं? किसी के काम पर अगर किसी अन्य के प्रभाव का अतिरेक दिखे तो उसके लिए एक शब्द है, मानस-पुत्र।
क्या हमारे अमिताभ बच्चन हमारे दिलीप कुमार के मानस-पुत्र हैं? कई फिल्म समीक्षक मानते हैं कि दिलीप कुमार की सर्वश्रेष्ठ नकल अमिताभ ने की है या फिर दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान का अमिताभ से ज्यादा सफल मानस-पुत्र और कोई नहीं हुआ।
अमिताभ कोई छोटे-मोटे अभिनेता नहीं हैं। वे सदी के महानायक कहलाते हैं। दिलीप कुमार बेहतरीन हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी और पश्तो बोल सकते थे तो अमिताभ का भी उर्दू का तलफ्फुज़ और अंग्रेजी व हिंदी का उच्चारण कमाल का है। (वैसे उनकी हिंदी के बारे में ऑल इंडिया रेडियो की एक अनाउंसर ने मुझे यह कह कर टोक दिया था कि अमिताभ बच्चन अपने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में हमेशा बोलते हैं, ‘देवियो और सज्जनो, नमष्कार।’ जबकि सही शब्द तो ‘नमस्कार’ है।) वे एक पढ़े-लिखे, सुसंस्कृत परिवार की पैदाइश हैं। अनुशासित और विनम्र भी। शुरू में उन्हें भी बहुत पापड़ बेलने पड़े थे, पर वे काफ़ी तैयारी से फिल्मों में आए थे। पिता हरिवंश राय बच्चन ने उन्हें ख्वाज़ा अहमद अब्बास के पास भेजा था जिससे ‘सात हिंदुस्तानी’ में उन्हें पहली भूमिका मिली। उधर यूसुफ खान को देविका रानी ने उनसे बातचीत के बाद उनके स्वभाव, उनकी ज़हनियत और उनकी ज़बान के नाते चुना था। किसी ने लिखा है कि तब ‘ज्वार भाटा’ की पूरी यूनिट बुरी तरह निराश थी कि मैडम ने ये किसको ले लिया, इसकी सूरत तो हीरो वाली है ही नहीं। और यहीं से यूसुफ खान ने उस दिलीप कुमार को अर्जित करना शुरू किया जिसकी हम बात कर रहे हैं।
रमेश सिप्पी ने 1982 में ‘शक्ति’ में पहली और आखिरी बार दिलीप और अमिताभ दोनों को एक साथ पेश किया। मगर इस फिल्म में ऐसे दृश्य ज्यादा नहीं हैं जब दोनों साथ-साथ कैमरे के सामने हों।
कुछ लोगों का दावा है कि इस फिल्म में एक जगह जब अमिताभ को दिलीप कुमार की आंखों में सीधे देखते हुए कुछ बोलना था तो उन्हें कई टेक देने पड़े क्योंकि वे दिलीप की आंखों में देखते तो डायलॉग भूल जाते थे या अटक जाते थे। और दिलीप कुमार इस बात से खीझे बिलकुल नहीं, बल्कि अमिताभ को प्रोत्साहित करते रहे।
अगर यह अमिताभ के गड़बड़ाने की बात सही है तो सोचिये कि इससे बहुत पहले 1968 की ‘आदमी’ में मनोज कुमार की क्या हालत हुई होगी। वे तो बिना किसी लाग-लपेट के सीधे-सीधे दिलीप कुमार की नकल करने वाले अभिनेता माने जाते थे। यह एक सघन मानवीय भावनाओं की कहानी थी जिसमें मनोज कुमार के लिए ज्यादा कुछ कर पाने की गुंजाइश नहीं थी। वे दिलीप कुमार के सामने, बस उनकी नकल भर करते रहे।
‘शक्ति’ को फिर भी दिलीप और अमिताभ दोनों की फिल्म के तौर पर याद किया जाता है, लेकिन ‘आदमी’ को हम दिलीप कुमार की फिल्म के रूप में ही याद करते हैं।
मनोज कुमार की फिल्में अगर आप याद करें तो पहले ‘शहीद’ या ‘उपकार’ या ‘पूरब पश्चिम’ वगैरह याद आएंगी, ‘आदमी’ नहीं। अपना पूरा करियर ही उन्होंने दिलीप की नकल करते गुजार दिया। अपनी तरफ से उन्होंने दिलीप कुमार में केवल यह जोड़ा कि वे भावातिरेक वाले दृश्यों में अपनी एक हथेली से अपने चेहरे को ढक कर संवाद बोलते थे।
यह इस कदर अननुपातिक होता था कि अच्छा लगने की बजाय दर्शकों को असहज ज्यादा बनाता था। मगर वे दिलीप कुमार के जबरदस्त फ़ैन थे।
‘बैराग’ के पिट जाने के बाद पांच साल तक दिलीप कुमार ने कोई काम नहीं किया था। बल्कि उन्हें यह तक लगने लगा था कि अब ये इंडस्ट्री उनके लायक नहीं बची है। ऐसे में मनोज कुमार ने ही 1981 में ‘क्रांति’ में उन्हें वापस लाकर उनकी कथित दूसरी पारी शुरू करवाई थी।
अच्छा हुआ कि राजेंद्र कुमार कभी दिलीप कुमार के साथ किसी फिल्म में नहीं आए। नहीं तो मनोज कुमार जैसी स्थिति में फंस जाते। वे भी दिलीप कुमार की शुद्ध नकल करते थे। पूरी कोशिश करते थे कि उन्हीं की तरह चलें, रोएं और नाचें। अपनी तरफ से कुछ नया करने या उसमें कुछ जोड़ने का प्रयास भी नहीं करते थे। मगर दिलचस्प तो यह है कि जिस राजेंद्र कुमार को महज कामचलाऊ अभिनेता माना जाता था, अपने समय में उन्होंने ही सबसे ज्यादा सिल्वर जुबली फिल्में दीं। यहां तक कि उन्हें जुबली कुमार कहा जाने लगा।
उनके बाद राजेश खन्ना का दौर आया। उनके मैनेरिज़्म में दिलीप कुमार की भी छाप थी और देव आनंद की भी। उन्होंने जैसे इन दोनों को जोड़ कर पेश किया था। उन्हें जबरदस्त कामयाबी मिली।
फिर अमिताभ बच्चन आए जो दिलीप कुमार को अपने तरीके से लगभग आत्मसात किए हुए थे। और उनके बाद शाहरुख खान ने नए जमाने के अल्हड़ दिलीप कुमार को पेश किया। उन्होंने अपनी आवाज में वही गहराई पैदा करने की कोशिश की और स्टाइलों में हकलाना जोड़ दिया। निश्चित ही संजय लीला भंसाली की भव्य ‘देवदास’ में काम करते वक्त शाहरुख के सामने बार-बार दिलीप कुमार की ‘देवदास’ आकर खड़ी हो जाती होगी।
एक ऐसे अभिनेता के लिए यह कठिनाई और बड़ी हो जाती है जो अघोषित रूप से खुद को दिलीप कुमार की अनुकृति के तौर पर पेश भी करना चाहता हो।
निर्मल वर्मा कहा करते थे कि प्रेम एक विशाल अनुभव है, जितना जिसकी मुट्ठी में आ गया, वह उसी को परिपूर्ण प्रेम मान लेता है, मगर प्रेम तो अनंत है, आकाश की तरह।
इसके बहुत दिनों बाद मैंने एक इंटरव्यू में शशि कपूर को कहते सुना कि ‘दिलीप साहब तो आकाश की तरह हैं और हम एक्टर लोग उस आकाश में से अपनी जरूरत का कुछ-कुछ हिस्सा लेते रहते हैं।
‘ शशि कपूर का मैनेरिज़्म ऐसा कतई नहीं था कि आप आसानी से पहचान पाएं कि कहां उन्होंने दिलीप कुमार का कोई टुकड़ा लिया। लेकिन अगर उन्होंने ऐसा कहा था तो ज़रूर ऐसे और भी अभिनेता होंगे।
हालांकि शुरू से ही, कई अभिनेता ऐसे भी हुए जो किसी की नकल नहीं कर रहे थे। जैसे मोतीलाल, गुरुदत्त, बलराज साहनी, संजीव कुमार वगैरह। जबकि धर्मेंद्र और जितेंद्र का भी किसी की नकल के प्रति कोई मजबूत आग्रह नहीं था, इसीलिए कई डायरेक्टरों ने इनसे बेहतरीन काम ले लिया। (जारी)
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