न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
महेंद्र पाण्डेय
दुनिया भर में भाषाएँ, विशेष कर जनजातीय अथवा आदिवासी भाषाएँ, तेजी से विलुप्त हो रही हैं| जनजातीय भाषाओं के विलुप्तिकरण के कारण औषधीय पौधों के गुण और उपयोग से सम्बंधित बहुमूल्य ज्ञान भी धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है| इसका मतलब हुआ कि भाषाओं के नष्ट होने से केवल वनस्पतियों की पारंपरिक जानकारियाँ ही नष्ट नहीं हो रही हैं बल्कि जंतुओं, जैव-विविधता और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की परम्परागत जानकारी ही नष्ट होती जा रही है|
अमेरिका के प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र में यह चेतावनी दी गई है। इस शोधपत्र के मुख्य लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ़ ज्यूरिख में वनस्पति विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ रोड्रिगो कैमरा लेरेट हैं| संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया की 7400 भाषाओं में 30 प्रतिशत से अधिक विलुप्तिकरण के दौर में हैं और इस शताब्दी के अंत तक इनमें से अधिकतर हमेशा के लिए खो जायेंगी| डॉ रोड्रिगो के अनुसार भाषा के नष्ट होने से केवल बहुमूल्य ज्ञान ही नहीं बल्कि पूरे समाज की सांस्कृतिक विविधता को आघात पहुंचता है| इस अध्ययन के लिए कुल 12000 ज्ञात औषधीय गुणों वाले वनस्पतियों का चयन किया गया, जिनका प्राकृतिक आवास उत्तरी अमेरिका, उत्तर-पश्चिम अमेजोनिया और न्यू गिनी था| इन औषधीय गुणों वाली वनस्पतियों के प्राकृतिक आवास के आसपास कुल 230 जनजातीय भाषाएँ बोली जाती हैं|
वैज्ञानिकों ने देखा कि उत्तरी अमेरिका में औषधीय गुणों वाली वनस्पतियों की 73 प्रतिशत से अधिक जानकारी केवल एक जनजातीय भाषा के पास है। इसी तरह अमेजोनिया में 91 प्रतिशत जानकारी केवल एक भाषा में और न्यू गिनी में 84 प्रतिशत जानकारी केवल एक जनजातीय भाषा में उपलब्ध है| जाहिर है कि इस एक भाषा के लुप्त होते ही बहुत सारी औषधीय वनस्पतियों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा व्यावहारिक ज्ञान हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा| इस शोधपत्र के अनुसार ऐसी वनस्पतियों का व्यावहारिक ज्ञान जिन जनजातीय भाषाओं में उपलब्ध है, उनमें से अमेजोनिया में शत-प्रतिशत भाषाएँ विलुप्तिकरण की तरफ बढ़ रही हैं, जबकि उत्तरी अमेरिका और न्यू गिनी में 86 प्रतिशत और 31 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त हो रही हैं|
डॉ रोड्रिगो केमरा लेरेट के अनुसार उन्होंने पूरी दुनिया में ऐसा अध्ययन नहीं किया है, पर इतना तय है कि पूरी दुनिया में भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं या खतरे में हैं और इनके साथ ही पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की व्यावहारिक जानकारी समाप्त हो रही है| हम जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय समझौते कर रहे हैं, पर जनजातीय भाषाओं के विलोप पर खामोश रहते हैं| डॉ रोड्रिगो केमरा लेरेट के अनुसार अगर सभी देश सचमुच पारिस्थितिकी तंत्र और जैव-विविधता को बचाना चाहते हैं तो उन्हें इससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान की बहुत जरूरत पड़ेगी, पर वह तो जनजातीय भाषाओं के साथ नष्ट होता जा रहा है|
संयुक्त राष्ट्र के यूनेस्को के अनुसार जब किसी भाषा के बोलने वालों की संख्या दस हज़ार से कम हो जाती है तब वह भाषा संकटग्रस्त मानी जाती है, और विलुप्तीकरण की तरफ बढ़ने लगती है| इस दौर में अधिकतर जनजातीय भाषाएँ संकटग्रस्त हैं, इसी समस्या पर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 से 2032 तक के दशक को जनजातीय भाषा दशक के तौर पर मनाने का ऐलान किया है|
भाषाओं के विलुप्त होने की दर भारत में दुनिया के किसी भी देश से अधिक है| इसका एक कारण सरकार की जनगणना से सम्बंधित नीतियाँ भी हैं| वर्ष 1971 की जनगणना के समय से उन भाषाओं की सूची नहीं बनाई जाती, जिन्हें बोलने वालों की संख्या दस हजार से कम हो| यही कारण है कि वर्ष 1961 की जनगणना में 1652 भाषाओं का जिक्र था, जबकि वर्ष 1971 के बाद यह संख्या अचानक गिर कर 108 पर आ गयी| यूनेस्को के अनुसार भारत में 197 भाषाएँ संकटग्रस्त हैं, यह संख्या दुनिया में सबसे अधिक है| इसके बाद अमेरिका में 191, ब्राज़ील में 190, चीन में 144 और इंडोनेशिया में 143 भाषाएँ संकट ग्रस्त हैं|
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी स्थित सेंटर ऑफ़ लिंग्विस्टिक्स की आयेशा किदवई के अनुसार सबसे अधिक खतरे में जनजातीय भाषाएँ हैं| ये भाषाएँ वनस्पतियों, जन्तुओं और परम्परागत औषधियों से सम्बंधित ज्ञान का अथाह भण्डार हैं| पर समस्या यह है कि इस ज्ञान को लिखा नहीं जाता, बल्कि यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सुन कर ही पहुँचता है|
गुजरात के वड़ोदरा स्थित भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर के निदेशक गणेश देवी के अनुसार वर्ष 1961 से अब तक देश में 220 से अधिक भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं, और अगले 50 वर्षों में 150 से अधिक अन्य भाषाएँ विलुप्त हो जायेंगी| उनके अनुसार देश में 780 भाषाएँ इस्तेमाल की जा रही हैं और इनमें से 600 से अधिक संकटग्रस्त हैं| गणेश देवी के मुताबिक सिक्किम की माझी, पूर्वी भारत की महाली, अरुणाचल प्रदेश की कारो, गुजरात की सिदि, असम की दिमासा और बिरहोर सबसे अधिक संकट में हैं। ये सभी जनजातीय भाषाएँ हैं| सिक्किम की माझी भाषा को तो केवल चार लोग ही बोलते हैं और वे सभी एक ही परिवार के हैं| संविधान की आठवीं सूची में शामिल दो प्रमुख जनजातीय भाषाओं, बोडो और संथाली, को बोलने वालों की संख्या भी लगातार कम हो रही है|
दूसरी तरफ देश में कुछ ऐसी जनजातीय भाषाएँ भी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, और अब इनमें साहित्य भी लिखा जा रहा है बल्कि कुछ भाषाओं में तो फ़िल्में भी बन रही हैं| इनमें सबसे आगे है ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा गोंडी| महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात में बोली जाने वाली भीली, मिजोरम की मिज़ो, मेघालय की गारो व खासी और त्रिपुरा की कोकबोरोक को बोलने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है|
दुनिया में पूंजीवाद के विकास ने पारिस्थितिकी तंत्र, पर्यावरण, संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। इसके साथ ही भाषाएँ भी नष्ट हो रही हैं| भाषाओं के साथ ही पारंपरिक ज्ञान का अथाह भण्डार भी लुप्त हो रहा है। लेकिन आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और रोबोट्स वाले युग में क्या हम अपनी इन अमूल्य भाषाओं को बचा पाएंगे?
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