न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क

अरविंद कुमार सिंह

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने 2020-21 के लिए प्रमुख फसलों का तीसरा अग्रिम अनुमान जारी किया जिसके मुताबिक खाद्यान्न उत्पादन रिकॉर्ड 30.544 करोड़ टन रहेगा।

यह 2019-20 की तुलना में 79.4 लाख टन ज्यादा है। इसमें धान का कुल उत्‍पादन रिकॉर्ड 12.146 करोड़ टन और गेहूं का रिकॉर्ड 10.875 करोड़ टन और मोटे अनाजों का उत्‍पादन 4.966 करोड़ टन, दलहन उत्‍पादन 2.558 करोड़ टन तथा कुल तिलहन उत्‍पादन रिकॉर्ड 3.657 करोड़ टन अनुमानित है।

यह किसी भी देश के नीति निर्माताओं के लिए खुशी की बात होती है कि उनके यहां तमाम खाद्य वस्तुओं का रिकार्ड उत्पादन हो। कोरोना संकट के दौरान किसानों ने ही सबसे अधिक राहत पहुंचायी। लेकिन किसानों की मदद के मामले में यह उल्टा होता दिख रहा है।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के दायरे में बड़ी आबादी आ जाने से इसके लिए सालाना कमसे कम 614.4 लाख टन अनाज की जरूरत है लेकिन किसानों ने पहली फरवरी, 2021 को केंद्रीय पूल में 8.22 करोड़ टन खाद्यान्न का विशाल भंडार पहुंचा दिया।

आज हम दूध उत्पादन में प्रथम स्थान पर हैं। मुर्गी-पालन, डेयरी, मत्स्य-पालन, जलीय कृषि, रेशम पालन, मधुमक्खी पालन और बागवानी की गतिविधियों का विस्तार तेजी से हो रहा है। लेकिन इन जगहों पर कहीं सरकारी समर्थन मूल्य के संदर्भ में न होने के कारण ये सभी अनिश्चितता का शिकार रहती हैं।

जो फसलें एमएसपी के दायरे से बाहर हैं वे भी राम भरोसे हैं।

कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों पर भारत सरकार जिन 22 फसलों की एमएएसपी घोषित करती है, वे ही मुख्य फसलें हैं और उनका योगदान करीब 60 फीसदी है। शेष 40 फीसदी फसलों में अधिकतर बागवानी उत्पाद हैं।

1960 में भारत और चीन का कृषि उत्पादन करीब बराबर था लेकिन आज चीन के मुकाबले हमारी प्रमुख फसलों की उपज लगभग आधी है। फिर भी विपरीत हालात के बावजूद 1950-51 से हमारा अनाज उत्पादन चार गुना,  बागवानी छह गुना, मछली उत्पादन नौ  गुना और दूध उत्पादन में छह गुना से अधिक बढ़ोत्तरी हुई है।

सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुना करना चाहती है लेकिन वह पीएम किसान के माध्यम से साल में छह हजार की मदद से पूरा नहीं होगा बल्कि उसका निदान वाजिब दाम में निहित है।

सरकार व्यापक कृषि सुधारों का दावा तो कर रही है लेकिन एमएसपी पर खरीद की गारंटी का कानून बनाने में आनाकानी कर रही है। हालांकि किसान ही नहीं भाजपा नेता भी इस पक्ष में रहे हैं कि खरीद गारंटी का कानून बने।

2011 में मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी खुद किसानों की फसलों की एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी चाहते थे। 

राज्य सभा में 19 जुलाई, 2019 को भाजपा किसान मोर्चा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष विजय पाल सिंह तोमर ने मांग की थी कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि फसलों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीदा या बेचा न जाए और इसका उल्लंघन करने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाए।

मध्य प्रदेश में मंदसौर कांड के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने 11 जून 2017 को 28 घंटे तक उपवास रखा था और फिर दावा किया राज्य में अब एमएसपी से कम पर अनाज खरीदना अपराध माना जाएगा और सरकार इसके लिए नियम बनाएगी।

भारत में किसान जिन वस्तुओं को खरीदता है वे एमआरपी के दायरे में है।

सरकार जिन फसलों की एमएसपी तय करती है, उसके लिए तो ठोस व्यवस्था बनाना असंभव नहीं है। निजी क्षेत्र को भी खरीद का लाइसेंस देने के बाद सरकार अगर एमएसपी पर खरीद की गारंटी नहीं देगी तो किसानों का यह क्षेत्र कितना शोषण करेगा इसका अंजाज नीतियां बनाने वालों  को भी है।

इस नाते तीनों कानूनों को रद्द करने के साथ किसान एमएसपी पर खरीद की वैधानिक गारंटी और मंडी व्यवस्था बरकरार रखना चाहते हैं।

तमाम विसंगतियों के बाद भी मंडियां ही किसानों को उचित मूल्य दिलाने में मददगार होती हैं। लेकिन नए कानूनों के बाद मंडियों पर प्रतिकूल असर के संकेत अभी से मिलने लगे हैं।

अपनी बेहतरीन मंडी व्यवस्था के नाते ही खाद्य सुरक्षा की सबसे अहम फसल गेहूं और धान की खरीदी में पंजाब अव्वल रहता है। हाल के सालों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान इस दिशा में आगे बढा है। दक्षिणी राज्यों में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी खरीद बेहतर हुई है।

आज भी सरकार द्वारा जिन कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य घोषित करती है, उनमें अधिकतर को खरीदा नहीं जाता। भंडारण व्यवस्था में कमजोर किसानों को अपना कृषि उत्पाद औने-पोने दामों पर व्यापारियों को बेचने को मजबूर होना पड़ता है। जिन फसलों की एमएसपी तय होती है वे करीब 74 फीसदी सिंचित रकबे में होती हैं। इस तरह देखें तो बड़ी संख्या में किसान इससे वंचित रहते हैं। सीमित किसानों को इसका फायदा होता है और अधिकतर छोटे और सीमांत किसान खरीद प्रक्रिया से बाहर रहते हैं। इस नाते पूरी तरह खेती पर ही आश्रित किसानों के पास अगर इतनी आय भी नहीं होगी कि वे ढंग से कपड़े पहन सके और बच्चों को स्कूल भेजने के साथ बाकी जरूरतों को पूरा कर सकें।

बाते दशकों में वाजिब दाम न मिलने के मसले पर ही अधिकतर आंदोलन हुए हैं। कई इलाकों में किसानों ने सब्जियां और कृषि उत्पाद सड़कों पर बिखेर कर विरोध जताया।  कोरोना संकट के दौरान देश के तमाम हिस्सों से टमाटर, लौकी, तुरई, खीरा, अंगूर, सन्तरा, लोकाट, लीची को किसानों को फेंकना पड़ा था। लॉकडाउन के दौरान सब्जियों व फल की खेती करने वाले किसानों को ही नहीं पशुपालकों से लेकर कुक्कुट और मछली पालक किसानों को भारी घाटा उठाना पड़ा। वहीं कारोबारियों ने खूब दाम बढ़ा कर भारी मुनाफा कमाया। 1950-51 में उपभोक्ताओं द्वारा चुकाई गयी कीमत का 89  फीसदी हिस्सा तक किसानों की जेब में पहुचता था जो अब घट कर 34 फीसदी से कम हो गया है और 66 फीसदी रकम बिचौलियों की जेब में जा रही है।

केरल सरकार ने 1 नवंबर 2020 से  खाने पीने की 21 वस्तुओं का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जिसमें 16 सब्जियां हैं। किसान संगठन तो काफी सालों से आलू, प्याज, टमाटर और लहसुन आदि को इसके दायरे में लाने की मांग करते रहे हैं लेकिन यह जमीन पर नहीं उतरी। जो आलू बाजार में उपभोक्ता 50 से 60 रुपए में खरीद रहा होता है, जरूरी नहीं कि उसका दाम किसान को पांच रुपये भी मिला हो। कई बार यह सुर्खी बनी है कि मंडियों में हताश किसान आलू, टमाटर, प्याज और लहसुन फेंक कर गुस्से में घर लौट गए।

बेशक किसान हमारी रीढ और अन्नदाता है। कोरोना संकट ने पूरी दुनिया में उनकी अहमियत को साबित किया है। भारत में खाद्य मामलों में आत्मनिर्भरता स्वतंत्र भारत की सबसे सफल गाथाओं में एक मानी जाती है।

भारत को खाद्य सुरक्षा देने में हरित क्रांति और खास तौर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बहुत अहम योगदान माना जाता है।

पांच दशक से सरकारी अनाज की खरीद की धुरी यही राज्य बने थे लेकिन उत्पादकता बढ़ने के साथ कई और राज्यों में संभावनाएं बनी हैं और वहां के किसानों को एमएसपी पर खरीद का दायरा बढ़ा कर शोषण से बचाया जा सकता है। कमसे कम 10 प्रमुख फसलों की सरकारी खरीद अगर सुनिश्चित नहीं होती और इसके दायरे में अगर 6 से सात करोड़ किसान नहीं आते मौजूदा खरीद का आंकड़ा बहुत उत्साहजनक नहीं माना जा सकता है।