न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क

सुशील कुमार सिंह

बताइए, यह भी कोई सवाल है कि ट्रेनें लेट क्यों होती हैं। वे तो लेट होती ही हैं। इसमें क्या हो गया। ट्रेन चलेगी तो लेट भी होगी। देश में कुछ बहुत ही खास ट्रेनों को छोड़ दें तो लगभग हर ट्रेन के यात्री यह मान कर चलते हैं कि वह लेट भी हो सकती है। और खास ट्रेनें भी चाहें तो लेट हो जाएं, किसने रोका है। इसलिए यह एक चौंकाने वाली खबर थी कि रेलवे के दिल्ली मंडल के अधिकारियों ने 20 से 27 जनवरी के बीच ट्रेनों में स्वयं यात्रा करके यह पता लगाने की कोशिश की कि आखिर ट्रेनें लेट क्यों होती हैं और होती भी हैं तो लगातार क्यों लेट होती रहती हैं।

इस खोजी अभियान के लिए उन्होंने दिल्ली के अलग-अलग स्टेशनों से शुरू होने वाली बारह ट्रेनों को छांटा। नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और हजरत निजामुद्दीन आदि स्टेशनों से अफसर लोग इन ट्रेनों में सवार हुए। उनमें कोई रेवाड़ी तक गया तो कोई पलवल तक। ये अधिकारी यह जांचना चाहते थे कि कोई ट्रेन आने पर लेवल क्रॉसिंग समय से बंद किए जाते हैं या नहीं, सिग्नल समय पर मिलता है कि नहीं, लेट चल रही ट्रेनों का स्टॉपेज टाइम घटाया जाता है कि नहीं और उन्हें बगैर किसी अड़चन के निकालने के लिए पटरियां खाली रखी जाती हैं या नहीं। इस अभियान का यह पहला चरण था। मतलब यह कि अभियान अभी पूरा नहीं हुआ है और भविष्य में इसके और भी चरण आने वाले हैं। कहा नहीं जा सकता कि ये कुल कितने चरण होंगे।

इस खबर का सबसे रोचक पहलू यह था कि आज़ादी के साढ़े तिहत्तर बरस बाद भी रेलवे वालों को यह नहीं पता कि ट्रेनें लेट क्यों होती हैं। जैसे किसी हलवाई को अपनी ही मिठाई के बारे में यह न मालूम हो कि उसमें ऐसा क्या और कितनी मिकदार में मिलाया गया है कि एक किलो में सोलह की बजाय बारह पीस ही चढ़ रहे हैं। और जैसे पुलिसवाले यह पता करने निकलें कि जितनों को हम पकड़ते हैं उनमें से इतने सारे लोग अदालत से छूट कैसे जाते हैं।

मुझे हैरानी इसलिए भी हुई कि जिन चीजों पर किसी को ऐतराज न हो, उनके बारे में सिर क्यों खपाना। ट्रेन लेट होने पर लोग खीझ तो सकते हैं, लेकिन यह कोई नहीं पूछता कि वह लेट क्यों हुई। हम बचपन में भी सुनते थे कि फलानी ट्रेन इतनी लेट पहुंची कि अमुक व्यक्ति इंटरव्यू में समय से नहीं पहुंच पाया और आज भी स्टेशन पहुंचो तो अक्सर उस ट्रेन के लेट होने की सूचना मिलती है जो आपको पकड़नी है। मगर किसी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सब इसे सहजता से लेते हैं। ट्रेनों का लेट होना हम भारतीयों के सामूहिक मानस में इस कदर स्थायी और स्वीकार्य हो गया है कि अगर कोई इसकी वजह पूछे तो शायद लोग उसे घूर कर देखने लगेंगे कि यह कैसा आदमी है जो ऐसा निरर्थक सवाल करता है।

सर्दियों में अक्सर कहा जाता है कि कोहरे की वजह से इतनी ट्रेनें लेट हो गईं। मॉनसून के दिनों में जोरदार बारिश भी ट्रेनें लेट करा देती है। फिर, देश में असमानता के सर्वव्यापी सिद्धांत को अंगीकार करते हुए महंगी ट्रेनों को रास्ता देने के लिए बेचारी सामान्य ट्रेनों को बीच-बीच में रोक कर किनारे खड़ा कर दिया जाता है। इस चक्कर में वे लेट हो जाती हैं। कुछ पैसेंजर ट्रेनें तो ऐसी भी हैं कि दूर खेत में भाग कर आता कोई साथी दिख गया तो दूधवाले उसके लिए जंजीर खींच कर ट्रेन रोक लेते हैं और जब तक तमाम दोस्त-यार चढ़ नहीं जाते तब तक इसी तरह बार-बार रोकते रहते हैं। कई बार कोई एक्सीडेंट या किसी ट्रेन का पटरी से उतरना भी ट्रेनों को लेट करा देता है। इसी तरह जब किसी आंदोलन में शामिल लोग रेल पटरियों पर आ बैठते हैं तब भी वहां की ट्रेनें समय से गंतव्य तक नहीं पहुंच पातीं। मगर यह सब हमेशा और सभी रूटों पर नहीं होता। फिर भी ट्रेनें लेट हो जाती हैं और हर रूट पर होती हैं।

इसलिए हमें समझना चाहिए कि कुछ चीजों पर सवाल नहीं पूछे जाते। बल्कि सवाल बनते ही नहीं हैं। जैसे देश में गरीबी है तो है। इसी तरह, ट्रेन लेट होती है तो होती है। अब इसमें कोई क्या करे। क्या पूछे। जिस बात का किसी के पास जवाब ही न हो, उसे पूछने से क्या फायदा? अपने साहित्य में और फिल्मों में तरह-तरह से ट्रेनों का इस्तेमाल होता है। मगर उनमें कोई यह पूछता नहीं दिखता कि ट्रेनें लेट क्यों होती हैं। पुरानी फिल्मों और पुराने उपन्यासों-कहानियों में भी कोई यह सवाल नहीं करता था। शायद हम भारतीय शुरू से जानते थे कि इस संसार में इससे अधिक निस्सार प्रश्न नहीं हो सकता। ट्रेन लेट हो गई तो हो गई, ये कौन बड़ी बात है। इसे कहते हैं अनिश्चितता में भी निश्चिंत रहने की संस्कृति। शायद पाकिस्तान और बांग्लादेश की ट्रेनों में भी इसी संस्कृति का निर्वहन हो रहा होगा। आखिर वे भी कभी हमारी रेलवे का ही हिस्सा थीं।

अंग्रेजों ने भारत में जब पहली रेल चलाई होगी, संभवतया तभी हमने प्रण कर लिया होगा कि इसके लेट होने पर कोई सवाल नहीं पूछेगा। आज़ादी मिल गई, लेकिन ट्रेनें लेट क्यों होती हैं, ऐसा वाहियात सवाल आज भी कोई नहीं पूछता। यानी उस संकल्प पर हम अभी भी कायम हैं। फिर भी, पता नहीं क्यों, हर नया रेलमंत्री आते ही इस प्रयास में लग जाता है कि ट्रेनें समय से चलें। जबकि यात्री असलियत जानते हैं। धीरे-धीरे, कुछ समय बीतने पर मंत्री थक-हार कर ट्रेनों को समय से चलाने की जिम्मेदारी अगले मंत्री के लिए छोड़ देता है और यात्री भी अपनी अगली पीढ़ी को ताकीद कर जाते हैं कि ट्रेन लेट होने की वजह कभी मत पूछना। इसलिए अहमदाबाद से मुंबई के बीच बन रही बुलट ट्रेन भी शुरू होने के बाद अगर कभी लेट हो गई, तो न कोई कुछ सवाल करेगा और न हैरान होगा। जापानियों को हैरानी हो तो हो।