न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
बॉस्टन, अमेरिका से सुधांशु मिश्र
जो बात तत्कालीन सोवियत संघ को पिछली सदी के नौवें दशक में समझ आ गई थी वह दुनिया के एक और महाबली अमेरिका को अब जा के समझ में आई। यह कि आपकी फौज कितनी भी बलशाली हो, किसी ऐसे देश में जहां के लोग आपके साथ नहीं हैं, वहां फौज उतार कर अपना मनचाहा शासक तैनात करने और अरबों-खरबों डॉलर खर्च करने के बावजूद आपको गुनाह-बेलज्जत के बाद अपना सा मुंह लेकर लौटना ही पड़ता है। अफगानिस्तान में अपनी चहेती राजनीतिक व्यवस्था थोपने की कोशिश में बिट्रेन, रूस और अब अमेरिका, सभी को मुंह की खानी पड़ी। इतिहास ने एक बार फिर खुद को दोहराया।
अजब बात यह है कि आज अमेरिका और तब सोवियत संघ के राजनीतिक हलकों में अफगानिस्तान को लेकर लगभग एक जैसी भावनाएं व्यक्त की गईं। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों का आखिरी दस्ता भी कूच कर चुका है। क्या यह अमेरिका का दुम दबा कर भागना है जैसा कि दुनिया भर का मीडिया कह रहा है? या फिर इसे अमेरिकी योजनाकारों की विफलता मानें? या, इसे राष्ट्रपति जो बॉयडन की जल्दबाजी का नतीजा कहें?
अमेरिकी वायुसेना के सी-17 विमान से लटकने और गिरने वाले अफगानियों का फोटो अमेरिका कैसे भूल सकेगा? जो विमानों में जगह पा भी गए, उन्हें कतर के गोदामों में, जहां चूहे दौड़ रहे थे और चारों तरफ मलबे का ढेर लगा था, वहां ठूंस दिया जाना भी अमेरिका कैसे भुला पाएगा? इस सबके बावजूद, बहुसंख्यक अमेरिकी अफगानिस्तान से अपने फौजियों के घर वापस आने पर राहत महसूस कर रहे हैं। बीस साल पहले अफरातफरी में शुरू हुआ युद्ध अफरातफरी में ही सही, खत्म तो हुआ।
पिछले दस दिनों में अमेरिका के विभिन्न भागों में हजारों लोगों में की गई एक रायशुमारी में पूछा गया कि अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अल-कायदा, आईसिस और तालिबान का जोर-जुल्म बढ़ने का खतरा है, क्या फिर भी अमेरिका को सेना हटानी चाहिए? जवाब में 66 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अफगानिस्तान में बने रहने की कोई तुक नहीं है। फिर जब याद दिलाया गया कि न्यूयार्क पर हमला अल-कायदा की साजिश थी और अल-कायदा का वहां अड्डा था, तो सिर्फ दो प्रतिशत अमेरिकीयों ने अपनी राय बदली। यानी, बहुसंख्यक अमेरिकी अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ देने और अपनी सेना को वहां से लौटाने के पक्ष में थे।
यह सही है कि अफगानिस्तान में मची धमाचौकड़ी से बॉयडन की साख पर आंच आई दिखती है, लेकिन रायशुमारी के नतीजे विरोधियों के अनुमान से एकदम उलट हैं। काबुल हवाईअड्डे पर बदइंतज़ामी को लेकर लोग जरूर नाराज़ हैं। बीते रविवार सीएनएन ने पचास हजार लोगों के एक सर्वे के आधार पर कहा कि आधे से ज्यादा अमेरिकी मानते हैं कि 31 अगस्त की डेडलाईन की घोषणा से पहले बॉयडन को बेहतर बंदोबस्त सुनिश्चित करने चाहिए थे। जहां तक अफगान शरणार्थियों को अमेरिका में बसाने की बात है, तो लोगों को वह पच नहीं रही, लेकिन इसे इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि आप्रवासन के नाजुक विषय पर पिछले साढ़े चार सालों के दौरान ट्रम्प और रिपब्लिकन पार्टी ने काफी नकारात्मक प्रचार किया है।
अफगानिस्तान के घटनाक्रम की समीक्षा अभी थमने वाली नहीं है। रिपब्लिकन पार्टी इसे थमने भी नहीं देगी और अगले साल के मध्यावधि चुनावों में उसे भुनाने की पूरी कोशिश करेगी। हाउस ऑफ रिप्रेज़ेंटेटिव में टेक्सास के एक रिपब्लिकन सदस्य डैन क्रनशॉ ने सुनवाई शुरू भी कर दी है कि बॉयडन प्रशासन ने अफगानिस्तान में फंसे अमेरिकीयों और सहयोगी अफगानों को निकालने में कितनी गफलत की। कई दूसरे सदस्यों ने देश की खुफिया एजंसियों पर निशाना साधा है कि भगोड़ी अफगान सेना के बारे में उन्हें कुछ पता क्यों नहीं चला? कुछ सदस्यों ने आतंकी हमले में तेरह सैनिकों के मरने की घटना पर बॉयडन के इस बयान का भी मखौल उड़ाया कि थोड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिक भी एअरपोर्ट की सुरक्षा में सक्षम रहेंगे।
राजनीतिक दांव-पेंच एक तरफ, अफगानिस्तान के मामले में अमेरिकी विदेश नीति को धक्का जरूर लगा है। राजनीतिक निर्णय में ही नहीं, चूक लगभग हर स्तर पर हुई। बॉयडन को देश के नाम संदेश में कहना पड़ा कि उनके सलाहकारों के बीच आम सहमति थी कि बीस सालों में इतने परिश्रम से खड़ी की गई अफगान फौज ऐसी बेबसी से हाथ नहीं खड़ी करेगी। उस देश में पाला बदलने के लंबे इतिहास को देखते हुए सलाहकारों को यह अंदाज तो था कि काबुल की सरकार चार-पांच महीने से ज्यादा नहीं टिकेगी, लेकिन तीन सप्ताह का अनुमान किसी को नहीं था। योजना यही सोच कर बनाई गई थी कि चार-पांच महीने का समय अमेरिकी सैनिकों और अफगान सहयोगियों को निकालने के लिए काफी रहेगा। लेकिन पंद्रह अगस्त को तालिबान के काबुल में घुस आने और अशरफ ग़नी के देश छोड़ कर भाग निकलने से व्हाईट हाऊस में हड़बड़ी मची।
पेंटागन दावा करता रहा कि तीन लाख सैनिकों वाली सुसज्जित, सुप्रशिक्षित अफगान फौज काबुल सरकार को बचाए रखने में समर्थ है। लेकिन सबने देखा कि मौका पड़ने पर वे कागजी शेर हथियार और गोला-बारूद छोड़ कर कैसे निकल भागे। राजनीतिक हलकों में यह बात भी उठ रही है कि अफगान सैनिकों के चयन और प्रशिक्षण का जिम्मा प्राईवेट कांट्रेक्टरों को सौंपना बड़ी भूल थी और इसमें बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा हुआ है। इस सबसे पर्दा उठने का फिलहाल इंतजार ही करना होगा।
अमेरिकी जनता को अफगानिस्तान से आई तस्वीरें काफी विचलित कर रही हैं। बॉयडन को देर-सबेर जवाबदेही तय करनी ही होगी और अपने सलाहकार मंडल में छंटनी करनी पड़ेगी। देश में अगले साल मध्यावधि चुनाव हैं और फिर 2024 में राष्ट्रपति चुनाव। खामियाजा या तो बॉयडन को भुगतना होगा या उनकी पार्टी को। चार राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में दो हजार अरब डालर के खर्च, ढाई हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों की कुर्बानी, लाखों अफगानियों की मौत, 70 हजार अफगान सैनिकों की शहादत और ताजा अफरातफरी का हिसाब देश मांगेगा ही। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन, रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन, विदेश सचिव एंथनी ब्लिंकन का इतिहास गौरवशाली है, इसलिए सिर्फ उन्हें दंडित करने से अमेरिकीयों को शायद ही संतुष्टि मिले।
वास्तव में अमेरिकी नीति निर्धारकों ने अफगानिस्तान के विषय में ब्रिटेन और सोवियत संघ के अनुभवों से सबक नहीं लिया। सोवियत संघ को मिला सबसे बड़ा सबक यह था कि वह कितना भी महाबली हो, साधन और साध्य में घालमेल कभी ठीक नहीं रहता। 1979 में उसने भी सोचा था कि काबुल में अपनी पसंदीदा सरकार बैठा कर और कुछ सैनिक ठिकाने बना कर वह लौट जाएगा। लेकिन दस सालों में अपने तेरह हजार सैनिक गंवा कर, 40 हजार को अपंग बना कर, बारह लाख अफगानियों को मौत की नींद सुला कर उसे खाली हाथ लौटना पड़ा। सोवियत संघ यह झटका बर्दाश्त नहीं कर सका और बिखर गया।
1985 में मिखाईल गोर्बाचेव की ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लासनोस्त’ यानी खुलेपन की नीति के तहत जब वहां मीडिया को सेंसर से छूट मिली तो अफगानिस्तान के हालात और वहां सोवियत जान-माल के भारी नुकसान का लोगों को पता चल पाया। इसे जान कर वहां जनमत इतना बिफर पड़ा कि 1989 तक सोवियत सेना वापस बुलानी पड़ी। यही नहीं, अक्टूबर 1989 में देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था ‘हाऊस ऑफ डैप्युटीज’ ने अफगानिस्तान में सोवियत फौज भेजने की जांच कराई और राष्ट्रपति गोर्बाचेव ने यह उल्लेखनीय बयान दिया कि वह ‘नैतिक और राजनीतिक दिवालियापन’ था।
अमेरिकी सेना की वापसी के बारे में 2019 के दोहा समझौते को उचित बताते हुए डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा था कि अगर वे तालिबान के साथ समझौता नहीं करते तो अमेरिका का भी वही हाल होता जो सोवियत संघ का हुआ था। ट्रम्प शायद भूल गए थे कि सोवियत संघ का विघटन उसके अंतर-विरोधों के कारण हुआ था और अफगान युद्ध उसके अंतर-विरोधों का लक्षण था, कारण नहीं। लेकिन उनके बयान से अमेरिकीयों के मन में आशंकाएं पैदा हुईं।
बहरहाल, जानमाल के इतने भारी नुकसान के बाद, शायद अमेरिका को पता लग चुका होगा कि अफगानिस्तान के बारे में उसकी सोच तालिबान की तुलना में कितनी कच्ची थी। अफगानिस्तान न कभी एकीकृत राष्ट्र रहा है और न वहां ताकत के जोर पर केंद्रीय सत्ता मुमकिन है। काबुल में अमेरिकी मदद से स्थापित सरकार तालिबान की वजह से कम गिरी, उसका कारण अमेरिका की बेमेल ज़िद ज्यादा लगता है। (आभार – समय की चर्चा )
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