विनीत दीक्षित
चीन से लगने वाली पूरी एलएसी यानी लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल पर एक अजीब सी खामोशी छाई हुई है। खास कर पूर्वी लद्दाख के उन इलाकों में जहां दोनों तरफ के सैनिक दूरबीन के बगैर भी एक-दूसरे को और एक-दूसरे की गतिविधियों को देख सकने की हालत में हैं। सीमा के दोनों तरफ यहां लगभग पचास-पचास हज़ार सैनिकों का जमावड़ा है।
दिल्ली और बीजिंग के बीच कितने भी स्तरों पर बातचीत हो रही हो, और उनमें कुछ भी कहा-सुना जा रहा हो, लेकिन एलएसी पर तस्वीर तनातनी की है। असलियत यह है कि पैंगोंग लेक, चुशूल, चूमर और देपसंग में दोनों तरफ की फौजों के लिए गश्त करने की जगह भी नहीं बची। वे इस कदर आमने-सामने हैं कि निरंतर दूसरे की निगाह में हैं। इसलिए गश्त की न तो सुविधा बची है और न जरूरत।
सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद लद्दाख में दोनों तरफ की फौजें जब पीछे हटीं तो बीच में काफी खाली मैदान था। इस खाली जमीन पर दावा दोनों पक्ष करते थे, लेकिन कब्जा किसी का नहीं था। भारतीय सैनिक भी इस लंबे-चौड़े मैदान पर गश्त लगाया करते थे और पीपल्स लिबरेशन आर्मी के जवान भी। कभी-कभार वे एक-दूसरे के सामने पड़ जाते थे और चेतावनी देने पर लौट जाते थे।
कई बार मामला बढ़ गया, तब भी उनके बीच गोली नहीं चली। यहां तक कि गोली गलवान घाटी की खूनी झड़प में भी नहीं चली जो इस साल जून में हुई और जिसे भारत ने ‘ऑपरेशन स्नो-लेपर्ड’ का नाम दिया है। मगर उसके बाद, पिछले कुछ महीनों में चीनी फौज ने उस खाली ज़मीन पर कब्जा करने की कोशिश की है, जहां दोनों तरफ के सैनिक गश्त लगाया करते थे। अब ऐसे गश्त वाले स्थान असल में बचे ही नहीं हैं।
सिक्किम के नथुला दर्रे वाले इलाके में भारत और चीन की सीमा पर जहां दो बड़े-बड़े लोहे के गेट बने हैं, वहां भी कभी ऐसी ही हालत थी। सन् 1967 के अगस्त और सितंबर में यहां घमासान युद्ध हुआ था। जब गोलाबारी खत्म हुई और युद्ध रुक गया, तब वहां बीच में कंटीले तार लगाए गए। फिर दोनों पक्षों की सहमति से वहां एक एलएसी बनी।
बहरहाल, लद्दाख में इन दिनों हो यह रहा है कि दोनों तरफ के सैनिक अपनी-अपनी जगह, जहां वे हैं, पक्के बंकर बना रहे हैं। साथ ही आने वाली माइनस 40 डिग्री वाली सर्दियाँ झेलने की तैयारी कर रहे हैं। एलएसी के कई ठिकानों पर भारतीय सैनिकों के बंकरों में माइनस 25 डिग्री तक तो पारा अभी से यानी अक्टूबर की शुरूआत में ही पहुंचने लगा है। सर्दियां वहीं बिताने की गरज से इन सैनिकों के लिए बड़े पैमाने पर वहां रसद और गोला-बारूद का इंतजाम किया गया है।
अन्य चीजों के अलावा इन अग्रिम चौकियों पर पर्याप्त मात्रा में मिट्टी का तेल पहुंचाया गया है। यह बेहद अहम है। चौदह या पंद्रह हजार फुट की ऊंचाई पर जबरदस्त सर्दियों में मिट्टी का तेल ही वह ईंधन है जो जमता नहीं है। लड़ाकू विमानों के ईंधन में भी बेहतरीन स्तर के मिट्टी के तेल का इस्तेमाल किया जाता है। इसी तरह, माइनस 40 डिग्री के मौसम में सैनिक अपने मोर्चों पर डटे रह सकें, इसके लिए खास तौर से साइबेरियन हट मंगवाई गई हैं।
दशहरा आते-आते पूरा लद्दाख बर्फ से ढक जाता है और इस इलाके के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं। यहां की सर्दियां सहने के मामले में 15 नवंबर तक का समय़ बिताना एक इम्तहान पास करने जैसा है। जिस भी सैनिक ने सर्दियों के ये शुरूआती दो हफ्ते लद्दाख की एलएसी पर बर्फ वाले इलाके में बिता दिये, तो कहा जाता है कि वह अगले पांच-छह महीने तक वहां डटा रह सकेगा।
इस बीच चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने कहा है कि भारत अपनी विश्व स्तरीय ‘अटल सुरंग’ पर ज्यादा गुरूर न करे, क्योंकि अगर हालात बिगड़े तो चीन जब चाहे इस सुरंग को ध्वस्त कर सकता है। भारत इसे हास्यास्पद गीदड़ भभकी से ज्यादा कुछ नहीं मानता। इसी लेख में 255 किमी लंबी उस सड़क का भी जिक्र है जो भारत ने श्योक से दौलत बेग ओल्डी के बीच बनाई है। चीन सरकार के इस अखबार का कहना है कि चीनी सीमा के इतने नजदीक यह सब भारत इसलिए कर रहा है कि भारत के मंसूबे कुछ और ही हैं।
वैसे सुरक्षा मामलों के कई भारतीय और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों का दावा है कि श्योक से दौलत बेग ओल्डी वाली इस सड़क के बनने से चीन खासा चिढ़ गया है। उनके मुताबिक दोनों देशों के बीच सीमा पर चल रही मौजूदा तनातनी के पीछे इस सड़क का बनना भी एक कारण है।
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