न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क
विनीत दीक्षित
पूर्वी लद्दाख में एलएसी यानी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल के कई मोर्चों पर चीनी सेना भारतीय सीमा में जितनी भी घुस आई है, वह उससे पीछे हटने को तैयार नहीं है। चीन अपने इरादे पहले भी जाहिर करता रहा है, लेकिन इस रविवार दोनों सेनाओं के कमांडरों के बीच हुई बातचीत में यह बिलकुल साफ हो गया। इसके साथ ही भारतीय जवानों ने इस साल भी लद्दाख की भयावह सर्दी से लड़ने की तैयारी शुरू कर दी है।
दोनों तरफ के कमांडरों की यह तेरहवें दौर की बातचीत थी। खास कर भारतीय पक्ष को इससे काफी उम्मीदें थीं। लगभग आठ घंटे तक चली यह बातचीत पूर्वी लद्दाख के गतिरोध पर केंद्रित थी। इसमें दौलत बेग ओल्डी और डेमचक इलाकों की समस्या भी शामिल थी। मगर चीन ने कोई भी बात मानने से इन्कार कर दिया।
असल में चीन लंबे समय से अपने हिसाब से गढ़ी गई 1957 से 1959 वाली सीमा का जिक्र करता रहा है और उसी की मांग भी करता रहा है। 1962 के युद्ध के बाद से करीब छह दशकों में वह भारत से बातचीत भी करता रहा है और चुपचाप भारतीय जमीन पर घुसपैठ भी करता रहा है। आज दोनों देशों की सेनाएं जहां तैनात हैं, लगभग वही चीन की मनगढ़ंत सीमा है जिसके बारे में अब वह कोई बात नहीं सुनना चाहता।
इस साल के शुरू में कई सामरिक विशेषज्ञों ने आगाह किया था कि पीएलए यानी पीपल्स लिबरेशन आर्मी 2020 की सर्दियों से पहले उन लगभग 95 फीसदी स्थानों पर आ जमी है जिन्हें चीन अपनी 1959 वाली सीमा का हिस्सा मानता है। सन् 1962 के युद्ध के समय चीन ने कई स्थानों पर भारत के अंदर आकर मोर्चाबंदी की थी और युद्धविराम के बाद वह वापस चला गया था, लेकिन तभी से वह अपनी मनगढ़ंत सीमा को मनवाने पर आमादा है।
दूसरी ओर, भारत हमेशा से तिब्बत वाली सरहद को ही मानता रहा है जिसे जॉन्सन लाइन कहते हैं। यह लाइन अंग्रेजों के समय निर्धारित हुई थी जिसे भारत और तिब्बत के बीच की सीमा रेखा माना गया। भारत और तिब्बत दोनों इसे मान्यता देते थे, लेकिन तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद स्थिति बदल गई। 1957-59 के दौरान माओ त्से तुंग ने एकतरफा तौर पर अपने हिसाब से एक नई सीमा तय कर दी। 1962 की लड़ाई चीन ने इसी सीमा रेखा को हासिल करने के लिए की थी।
उस युद्ध के खत्म होने के बाद पीएलए काफी पीछे चली गयी और उसके पीछे हटने से जो जगह खाली हुई उस पर दोनों तरफ की सेनाओं की साझा गश्त होने लगी। भारत 1962 के बाद से ही लगातार मांग करता रहा है कि चीन को जॉन्सन लाइन के मुताबिक पूर्वी लद्दाख में कई जगहों से अपनी सेना पीछे हटा लेनी चाइये। इस मामले में चीन का रवैया टरकाने वाला रहा है। और इस बार तो उसने एकदम साफ मना कर दिया।
पिछले साल जब से चीन ने भारत के कुछ क्षेत्रों में घुसपैठ की है, तब से उसने इन इलाकों में पक्की यानी सीमेंट और कंक्रीट वाली इमारतें खड़ी कर ली हैं। ये एक तरह से चीनी सेना के चौबीस घंटे वाले बंकरों के पास उसकी छोटी छोटी छावनियां जैसी बन गई हैं। इस रविवार दोनों तरफ के कमांडरों की बातचीत चीनी कब्जे के क्षेत्र में चुशूल वाले रजांगला मैदान के एक कोने में बनी पक्की इमारत में हुई। यह इमारत उसी जगह बनी है, जिसे 1999 में पीएलए ने उस समय कब्जाया था जब भारतीय सेना का पूरा ध्यान करगिल की तरफ था, जहां उन दिनों समस्या चल रही थी।
पिछले साल पूर्वी लद्दाख में अपनी नाजायज गतिविधियों से चीनी सेना ने एक मोटे अनुमान के हिसाब से देपसांग के पठार पर भारत की लगभग 912 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया। यहां से काराकोरम और भारतीय एयर फोर्स की डीबीओ हवाई पट्टी भी करीब ही हैं। हॉटस्प्रिंग के पीपी15 और पीपी15ए पर भी यही हाल है। अक्साई चिन को तो फिलहाल चीन ने पूरा का पूरा अपना हिस्सा बताया हुआ है।
तेरहवें दौर की इस ताजा बातचीत की विफलता इस पूरे मामले की गंभीरता बयान करती है। भारत का कहना था कि बातचीत में हमारी हर सकारात्मक पेशकश को चीन ने ठुकरा दिया। उधर चीन का दावा था कि भारत उस पर चीन के ही इलाकों से हटने के लिए दबाव डाल रहा था। चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने तो सीधे चेतावनी के लहजे में कहा कि तेरहवें दौर की बातचीत के बाद अब भारत को सीमा विवाद के चलते तकलीफदेह नतीजे भुगतने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
चीन से लगने वाली भारत की 3488 किमी लंबी सीमा पर सत्रह ऐसे स्थान हैं जहां पर पीएलए लगातार घुसपैठ की कोशिश करती रहती है। इनमें पूर्वी लद्दाख में हॉटस्प्रिंग से लेकर देपसांग पठार, हिमाचल प्रदेश में सब सैक्टर कौरिक, उत्तराखंड में नीति पास का करीबी इलाका और मातली का बाराहुति मैदान, सिक्किम में नकुला ला, अरुणाचल प्रदेश में तवांग सैक्टर का बूमला और पूर्वी अरुणाचल प्रदेश का मेंचुखा शामिल हैं।
इस बातचीत के पहले तक लग रहा था कि दोनों तरफ की सेनाओं पर शायद इस बार सर्दियों में दबाव घट जाएगा। लेकिन अब इसकी कोई उम्मीद नहीं। हालांकि आगे भी बातचीत जारी रखने पर सहमति बनने की बात कही गई है, लेकिन ताजा बातचीत के बाद दोनों तरफ से सार्वजिनिक तौर पर नोकझोंक भी हुई है। सन् 1962 के युद्ध का अनुभव रखने वाले लोग मानते हैं कि अगर स्थिति पर जल्दी काबू नहीं पाया गया, तो कुछ भी हो सकता है।
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