न्यूज़गेट प्रैस नेटवर्क

अरविंद कुमार सिंह

भारतीय संसद का उच्च सदन सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जब तनातनी और और राजनीति का अखाड़ा बना हो, वहीं 9 फरवरी 2021 को नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद की विदाई के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो भावुक भाषण दिया है उसने भारतीय राजनीति में सत्ता और विपक्ष के बीच के रिश्तों को लेकर एक संकेत भी है और संदेश भी।

इसके निहितार्थ भी निकाले जा रहे हैं। लेकिन

प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा है वह गुलाम नबी आजाद की बेहतरीन संवाद क्षमता, व्यवहार, शालीनता औऱ मर्यादा की राजनीति को लेकर है। वे भारत की संसद पर एक अनूठी छाप छोड़ने वाले नेताओं में हैं और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी अलग पहचान है।

भारत की संसदीय राजनीति में आजाद अपनी अपनी अलग हैसियत रखते है। करीब पांच दशकों के अपने सार्वजनिक जीवन में आजाद बहुत बड़े दायित्वों से बंधे रहे। लेकिन सदन हो या सदन के बाहर उऩ्होंने कड़ी से कड़ी बात भी हमेशा मर्यादा की सीमा में और शालीनता से कही, जिस कारण सबके सम्मान के पात्र बने।

वे संसदीय राजनीति में वे नेहरू के दिखाए राह के पथिक थे जिन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों को हमेशा आगे रखा। सत्ता में रहे तो विपक्ष को बराबर तरजीह दी औऱ विपक्ष में रहने के दौरान भी सत्ता पक्ष को दुश्मन की निगाह से कभी नहीं देखा। यहां तक कि सदन के कामकाज के तरीकों को लेकर सभापति राज्य सभा एम वेंकैया नायडु से कई बार उन्होंने असहमति जतायी। फिर भी कभी उनके रिश्तों में कोई खटास नहीं आयी।

आजाद की राजनीति जमीनी स्तर पर 1973 में जम्मू कश्मीर में एक ब्लाक से आरंभ हुई और अपनी प्रतिभा से वे 1975 में जम्मू कश्मीर युवक कांग्रेस के अध्यक्ष बने और 1980 में अखिल भारतीय युवक कांग्रेस के अध्यक्ष। 1980 में सातवीं और फिर आठवीं लोक सभा के सदस्य रहने के अलावा श्री आजाद पांच बार राज्य सभा सदस्य रहे। केंद्र में वे संसदीय कार्य मंत्री, चिकित्सा, नागर विमानन, पर्यटन, शहरी विकास और तमाम विभागो के मंत्री रहे। नवंबर 2005 से जुलाई 2008 के दौरान जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में शानदार कामकाज करके उन्होने तमाम विरोधियों का मुंह भी बंद कराया जो कहते थे कि आजाद साहब हैं तो जम्मू कश्मीर के लेकिन राजनीति महाराष्ट्र की करते हैं।

लेकिन सत्ता की राजनीति ही नही, गुलाम नबी आजाद ने उच्च सदन मे दो बार नेता विपक्ष रहते हुए राजनीति में एक मानक बनाया। पहली बार 8 जून 2014 से 10 फरवरी 2015 तक और फिर 16 फरवरी 2015 से अब तक। जब वे पहली बार नेता विपक्ष बने थे तो कांग्रेस का संख्या बल 245 में से 67 था लेकिन आज 36 है। फिर भी उनकी प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आय़ी। राज्य सभा में बीजेपी से अरुण जेटली, जसवंत सिंह, सिकंदर बख्त और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज नेता विपक्ष रहे, जबकि कांग्रेस में एसबी चव्हाण, मनमोहन सिंह, जयपाल रेड्डी, कमलापति त्रिपाठी जैसे महारथी। लेकिन इनके बीच आजाद ने एक अलग छाप छोड़ी और सदन से उनकी विदाई की बेला में सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सभी गमगीन दिखे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी सौम्यता, नम्रता, देश के लिए कुछ कर गुजरने के जज्बे की जैसी तारीफ की, सामान्यतया विपक्षी नेताओं के बारे में ऐसा करते नहीं।

7 मार्च 1949 को जम्मू कश्मीर के डोडा में जन्में गुलाम नबी आजाद ने अपने राज्य से निकल कर जिस विपरीत हालात में जगह बनायी वह कोई सरल बात नहीं। 2015 के साल के लिए वे संसद के सबसे ब़ड़े उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार से सम्मानित हुए। यह पुरस्कार आजाद के पहले चंद्रशेखर, सोमनाथ चटर्जी, प्रणब मुखर्जी, लाल कृष्ण आडवाणी, अर्जुन सिंह, डॉ.मनमोहन सिंह जैसे संसदीय दिग्गजों को मिला है। 2018 में उप राष्ट्रपति एम.वेंकैया नायडु ने दिग्गज शरद पवार और प्रो. मुरली मनोहर जोशी के साथ उत्कृष्ट योगदान के लिए लोकमत संसदीय पुरस्कार  से सम्मानित किया।

2018 में कैलीफोर्निया असेंबली का एक शिष्टमंडल भारत आया था जिसे सभापति राज्य सभा की गैरमौजूदगी के नाते नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद से मिलवाया गया। संसद भवन में इस मुलाकात में मैं भी शामिल था। आजाद ने भारत की संसदीय व्यवस्था और राज्यों में विधायी कामकाज स लेकर सरकार और विपक्ष जैसे पक्षों पर इतने विस्तार से उऩको जानकारी दी कि उनके संसदीय ज्ञान से सभी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। पूरी बैठक में यह आभास लगाना कठिन था कि उऩकी बातचीत विपक्ष के नेता से हो रही है।

बेशक संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष का अपना एक गौरवशाली स्थान है। जैसे देश चलाने के लिए मजबूत सरकार जरूरी है वैसे सरकार के क्रियाकलापों पर नज़र रखने के लिए मजबूत विपक्ष की भी जरूरत होती है।

लोक सभा की तुलना में राज्य सभा में विपक्ष काफी मजबूत है। एच डी देवगौड़ा और डॉ. मनमोहन सिंह जैसे पूर्व प्रधानमंत्री इस समय विपक्षी खेमे में ही है। वहीं मल्लिकार्जुन खड़गे, शरद पवार, शिबु सोरेन, आनंद शर्मा, जयराम रमेश, राम गोपाल यादव, दिनेश त्रिवेदी, ए.के. एंटोनी, सतीश चंद्र मिश्रा, देरेक ओब्राइन, तिरुची शिवा, वाइको, दिग्विजय सिंह, अंबिका सोनी,  केटीएस तुलसी  जैसे दिग्गज भी उच्च सदन में हैं।

उच्च सदन की मौजूदा तस्वीर अब 2022 के पहले नहीं बदलनी है। गुलाम नबी आजाद समेत चार सांसदों के रिटायर होने के बाद इस साल केरल के तीन सांसद अप्रैल 2021 में रिटायर होंगे जबकि पुडुचेरी से एकमात्र सांसद एन गोकुलकृष्णन अक्तूबर 2021 में रिटायर होंगे। फिर छह मनोनीत सांसदों समेत 76 सांसदों को 2022 में रिटायर होना है।

इस बीच में शिवसेना से लेकर अकाली दल जैसे उसके कई पुराने सहयोगी भाजपा से अलग हो गए फिर भी भाजपा ने अपनी ताकत का विस्तार करते हुए संख्या बल 93 तक कर लिया है। बदले समीकरणों में विधायी मामलों में उसे अब अधिक सुभीता हो रहा है। लेकिन 2020 में मानसून सत्र में कृषि विधेयकों के पारित होने के बाद से सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच काफी तनाव है।

गुलाम नबी आजाद की ताकत संसदीय ज्ञान, सरलता औऱ सहजता के साथ बेहतरीन संगठनकर्ता होना भी है। चुनौती भरे दायित्वों से वे कभी पीछे नहीं हटे। यहां तक कि जब उनको दिल्ली से हटा कर जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस का जिम्मा सौंपा गया तो भी नहीं। हालांकि वे लगातार केंद्रीय राजनीति में थे और ऐसा माना गया कि यहां से उनकी अब विदाई हो रही है। लेकिन आजाद ने राजनीतिक तौर पर बंजर रहे राज्य में तीन दशक के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी करायी औऱ मुख्यमंत्री भी बने।

आतंकवाद से ग्रस्त जम्मू कश्मीर में उनके ही नेतृत्व मे विकास का एक नया दौर शुरू हुआ। तमाम चुनौतियों से वे जूझे और मनमोहन सिंह ही नहीं अटलजी तक का सहयोग हासिल किया।

2014 में केंद्र में एनडीए की सरकार बनाने के बाद नरेंद्र मोदी को कई अहम विधेयकों को पारित करने में राज्य सभा में बहुत दिक्कतें आयीं। सुधारों से संबंधित कई अहम विधेयक अरसे तक लटके रहे। जीएसटी विधेयक में अवरोध से तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली इतना नाराज हुए थे कि उन्होंने उच्च सदन की भूमिका पर ही सवाल खडा कर दिया था। लेकिन राज्य सभा की संरचना ही दिलचस्प रही है। उच्च सदन पर अरसे तक विपक्षी दलों का कब्जा रहा। करीब 39 सालों तक विपक्षी सांसदों की संख्या यहां अधिक रही, लेकिन विधायी कामों पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ा।

13 मई, 1952 को राज्य सभा की पहली बैठक से 68 सालों के बीच राज्य सभा में सरकारों के पास केवल 29 साल बहुमत रहा जबकि 39 सालों तक वे अल्पमत में रही। लेकिन विधायी कामकाज में दिक्कतें नहीं आयीं। मौजूदा सरकार ने भी राज्य सभा में पर्याप्त संख्या बल न होने के बावजूद जीएसटी, तीन तलाक, जम्मू कश्मीर पुनर्गठन के साथ नागरिकता संशोधन जैसे विधेयकों को पारित कराया। लेकिन गुलाम नबी आजाद जैसे सुलझे नेता विपक्ष के विदाई के बाद क्या तस्वीर बनती है, यह तो समय ही बताएगा। लेकिन इस संसदीय पारी से विदाई के बाद भी आजाद अपनी योग्यता और क्षमता के नाते मुख्यधारा में बने रहेंगे।

अरविंद कुमार सिंह – वरिष्ठ पत्रकार और संसदीय मामलों के जानकार